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    किस्मत और कर्म

    किस्मत और कर्म
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    मेहनत में सोना, किस्मत का रोना,
    जो भी मिले, उससे भी हाथ धोना।
    समय से न सोना समय से न उठना,
    दोष किस्मत का, हां किस्मत का रोना।

    कर्मक्षेत्र छोड़ता आरामगाह खोजता,
    अपनी प्रगति को स्वयं ही है रोकता।
    भागकर स्वयं से स्वयं को क्यों ढूंढ़ता,
    अपनी किस्मत को रुठने का मौका देता।

    दैव-दैव करता पर देव नहीं बनता,
    स्वयं की सहायता से तू मुंह मोड़ता।
    दैव नहीं आएंगे, तेरा कर्म नहीं साधेंगे,
    तू स्वयं ही कर्म से क्यों है मुंह मोड़ता।

    चाहता है यदि तू विजय पाना जीवन में,
    कर्म पर तू टूट पड़, कर्म में तू जुट जा।
    न देख कभी मुड़ कर अपनी किस्मत को तू,
    अपने कर्मों से तू खुद अपनी किस्मत बना।

    -- : रचनाकार : --
    मुकेश कुमार दुबे "दुर्लभ"
    ( शिक्षक सह साहित्यकार)
    सिवान, बिहार

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