गांव शहरों में बदलने लगें हैं
*********************
ये कच्ची-पक्की सड़कें ये उड़ती हुई धूल,
ये चीं-चीं करती चिड़ियां ये खिलते हुए फूल।
आमों के बगिया में जब कोयल कुकती है,
वाणी में मानो सबके मिसरी वह घोलती है।
गर्मी के महीनों में बगीचे में खेलते बच्चे,
कच्चे-पक्के मीठे-मीठे आमों को ढूंढते बच्चे।
बरगद की छाया में गाय, भैंस, भेड़, बकरियां,
पेड़ों की डाली पर झुलते लड़के और लड़कियां।
पोखर-तालाब के ठंडे पानी में नहाते बच्चे,
शाम को गलियों में जुलूस निकालते बच्चे।
यह गांव की परिभाषा धीरे-धीरे बदलने लगी है,
मोटर की पों-पों रात-दिन गांवों में गुंजने लगी है।
बिजली की लुकाछिपी गांवों में भी दिखती है,
कूलर,पंखे,फ्रीजर,एसी,वाशिंग मशीन मिलती है।
घर-घर में टीवी, एलइडी पर फिल्म देखते हैं,
रेडियो और बीबीसी अब बीते दिनों की बातें है।
गांवों के सारे बच्चे अब कान्वेंट में पढ़ने लगे हैं,
अंग्रेजी की पढ़ाई अब गांवों में भी होने लगी है।
साइकिल की सवारी देखने को कम मिलती है,
दिन-रात मोटरसाइकिल अब धूल उड़ाती है।
बैलों के गले में बजती सुंदर घंटियों की आवाजें,
अब ट्रैक्टर के कर्कश ध्वनियों में बदलने लगी है।
गोधूलि में गायों के आने से धूल नहीं उड़ती है,
गाड़ियों के दौड़ने से दिन-रात धूल उड़ती है।
अब खट्टी-खट्टी इमली के पेड़ नहीं दिखते हैं,
प्लास्टिक के पैकेटों में खट्टी इमली बिकती है।
सत्तू की सोंधी सुगंध अब गांवों में नहीं मिलती है,
अब डिब्बाबंद आटा गांवों में भी बिकता है।
चावल, मक्का, चने का भुजा गांव में नहीं बनते,
शहरों से भुनकर बंद पैकेटों में लाकर बेचते हैं।
खपरैल और फूंस की झोपड़ी गांवों में नहीं है,
सीमेंट, बालू, कंक्रीट के घर गांवों में बनने लगे हैं।
मेरे प्यारे गांव अब शहरों में बदलने लगे हैं,
चंदनवर्णी धूलें अब तारकोल में रंगने लगी है।
पेड़ों की हवाएं एसी-कूलर में बदलने लगी है,
अब गांव के रामू काका मोबाइल से बातें करते हैं।
अब धोती-कुर्ता वाले जींस-पैंट पहनने लगे हैं,
ये कच्ची-पक्की सड़कें ये उड़ती हुई धूल।
ये चीं -चीं करती चिड़िया यह खिलते हुए फूल,
ये सब अब बीते जमाने की बातें हो गई है।
सदियों पुराने गांव अब शहरों में बदलने लगे हैं,
सच कहता हूं कि अब सारे गांव बदलने लगे हैं।
-- : रचनाकार: --
मुकेश कुमार दुबे "दुर्लभ"
( शिक्षक सह साहित्यकार)
सिवान, बिहार