मनुष्य और समाज
***************
नहीं रहना चाहता है कोई,
अपनों से होकर अलग।
परिस्थितियों होती है प्रभावी,
कर देती है उसे विलग।
अलग होकर सोचता है मनुष्य,
क्या पाप किया जो रह रहा हूं दूर।
अपनों से अलग रहने के लिए,
क्यों कर मैं हुआ हूं मजबूर।
अपनी जिम्मेदारियां के लिए,
होना पड़ जाता है अलग-थलग।
आवश्यकतावस कोई भी,
हो जाता है अपनों से विलग।
जब कभी भाग्य साथ देता है,
आ जाता हैं वह अपनों के पास।
अति हर्षित होता है मन उसका,
मिट जाती है वर्षों की प्यास।
सामाजिक प्राणी है मनुष्य,
रहना चाहता है सदा समाज में।
सामाजिक सौहार्द बढ़ता है,
रहने पर सबके साथ में।
रचनाकार : --
मुकेश कुमार दुबे "दुर्लभ"
( शिक्षक सह साहित्यकार)
सिवान, बिहार