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    दुबला हूं मैं हां पतला हूं।

    दुबला हूं मैं हां पतला हूं।
    बिल्कुल रोटी का चकला हूं॥

    मेरी तो काठी ऐसी है।
    दादा की लाठी जैसी है॥

    माटी मेरी अब बोल रही।
    सारी कलई अब खोल रही॥

    खुद को मैं जौनार बताती।
    पोषक तत्त्वाहार उगाती॥

    बच्चे तुमको आंख दिखाते।
    तुम मेरी क्यों शाख मिटाते॥

    मुझे बताओ क्या है करना।
    अपने अपनो से क्या डरना॥

    हिम्मत से तुम काम सदा लो।
    डरको अपने धाम भगा दो॥

    उठकर नित्याहार शुद्ध लो।
    मन का सदा विचार शुद्ध हो॥

    मन द्रवित हुआ तन डोल रहा।
    मेरा अंतर्मन बोल रहा॥

    एकाकी जीवन का मारा।
    हे माटी मैं, मय से हारा॥

    मै से क्या मैं लड़ पाऊंगा।
    ऐसे तो मैं मर जाऊंगा॥

    कभी खिन्न रहता मेरा मन।
    तभी भिन्न रहता मेरा तन॥

    जीवन किसका सरल हुआ है।
    सबका ही तो विरल हुआ है॥

    जिसका जितना कठिन पाठ्यक्रम।
    जिसका जितना अधिक परिश्रम॥

    उसको वैसा मिल जाता बल।
    उतना उसको मिल पाता फल॥

    नीरस जीवन जीना भी क्या।
    बेबस होकर पीना ही क्या॥

    क्या तन ही सबसे प्यारा है।
    क्या मन ही सबसे न्यारा है॥

    इस तन का अब मोह नहीं है।
    इस मन से अब द्रोह नही है॥

    अब मत कहना तन कैसा है।
    या मेरा जीवन कैसा है॥

    *वरुण तिवारी मुसाफिरखाना*

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