प्रकृति है प्राकृतिक माता
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प्रकृति है प्राकृतिक माता
हर कोई यहां शरण पाता
जलचर, थलचर, वनचर ,
हर किसी को स्नेह मिलता।
प्रकृति के प्रांगण में नहीं
कोई बड़ा या छोटा होता
सूर्य-रश्मि , जल , पवन
पर सबका हक है होता।
प्रकृति है पालती सबको
नहीं भेदभाव वह करती
पर बदले में मानव से वह
कुछ भी तो नहीं मांगती।
पर कृतघ्न मानव हर पल
उसे दुषित है करता रहता
इसकी पवित्रता को सदा
वह तो अपावन है करता।
आदर करो प्रकृति मां का
प्रदूषण कभी मत फैलाओ
जितना शुद्ध रखोगे इसको
उतना अधिक सुख पाओ।
रचनाकार :-.
मुकेश कुमार दुबे "दुर्लभ"
( शिक्षक सह साहित्यकार)
सिवान, बिहार
( अप्रकाशित, मौलिक और स्वरचित रचना)