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    विधवा विवाह उचित या अनुचित __

    विधवा विवाह उचित या अनुचित __
      ईश्वर चन्द्र विद्यासागर जी के अकथ प्रयासों के फलस्वरूप भारत में 1856 मे विधवा विवाह को कानूनी मान्यता तो मिल गई है, पंरतु समाज में अभी भी इसकी पूर्णतः स्वीकारिकता नहीं है। कुछ रुढ़िवादी पुरातन पंथी लोग इसे धर्म और शास्त्र के विरूद्ध बताते हैं। आइए इस विषय का विश्लेषण करते हैं।
         परमेश्वर ने जब इस सृष्टि का निर्माण किया तो संसार को दो भागों में बांटा ,एक चेतन और दूसरा जड़, बाद में सृष्टि चक्र का विस्तार करने और सुचारू रूप से चलाने के लिए चेतन को पुनः दो भागों में बांट दिया पहला नर और दूसरा मादा ।
         परमेश्वर ने नर और मादा दोनों को एक दूसरे के साथ मिलकर रहने, जीवन निर्वाह करने, सृष्टि चक्र का विस्तार करने के लिए बराबर का दर्जा देकर बनाया है। पहले सब कुछ सामान्य था, नर _नारी दोनों को बराबर अधिकार प्राप्त थे ।
         धीरे, धीरे कई प्रकार के पंथ, संप्रदाय, मजहब, बने, कई तरह के समाज बने _बिगड़े, इसके फलस्वरूप नर, नारी के बीच में छोटे, बड़े होने की खींचतान शुरू हो गई, शारीरिक रूप से पुरुष का सबल होना महिला वर्ग के प्रताड़ना का अधिकार बन गया, महिलाओं पर कई तरह के नियम, रीति, रिवाज लाद दिए गए। सती प्रथा, बाल विवाह और विधवाओं के पुनर्विवाह करने में भी यही बात लागू हो गई ।
         आज जब विज्ञान ने बेतहाशा प्रगति कर ली है तथा समाज शिक्षित है, सती प्रथा, बाल विवाह, आदि कुरीतियों का खात्मा हो गया है फिर भी विधवा विवाह के प्रति आज भी सामाज में एक रुपता नहीं दिखाई देती है, आज भी कुछ रुढ़िवादी, लकीर के फकीर सोच वाले लोग इसे धर्म और शास्त्र के विरुद्ध बताते हैं।
          सनातनी आर्ष ग्रंथों में विधवा विवाह के समर्थन में काफी प्रमाण मिलते हैं यथा __

    "या पूर्वम पतिम वित्वा
    अथान्यम विन्दते परम्""
                                (अथर्व वेद)

    "नष्ट, मृते, प्रव्रजिते, क्लीबे,
    च पतिते पतौ ।
    पंचस्वापत्सु नारीनाम,
    पतिरण्यो विधीयते।।"

                     (पाराशर स्मृति)

    "या पत्या वा परित्यक्ता
    विधवा वा स्वेच्छया।
    उत्पादयेत पुनर्भूत्वा,
    पौनर्भव उच्चते।।"
                          (मनु स्मृति)

           इसके अलावा अग्नि पुराण, पद्म पुराण, नारद पुराण, महाभारत, कौटिल्य के अर्थशास्त्र, उछंग की जातक कथाओं आदि में भी विधवा विवाह के समर्थन में काफी कुछ लिखा गया है।
          सन 1935 में होशियारपुर (पंजाब) में पं अखिलानंद, पं कालूराम शास्त्री और अमर स्वामी जी के बीच विधवा विवाह पर शास्त्रार्थ भी हुआ था, और निर्णय इसके पक्ष में हुआ था।
         इसके बावजूद भी कुछ रुढ़िवादी, पुरातन पंथी लोग इसे स्वीकारने को तयार नहीं हैं।
          हमारे आर्ष ग्रंथों में सबसे पुराने वेद माने जाते हैं, कहा जाता है उनमें पूरा ज्ञान भरा हुआ है, इसमें कोई दो राय नहीं कि वेद सनातन धर्म की रीढ़ हैं, पंरतु उनमें कुछ विषय छूट गए होगे या कुछ विषय सामान्य लोगों की समझ के परे होगें इसलिए 108 उपनिषदों की रचना की गई, इनसे भी काम नहीं चला तो 06, दर्शन,18 पुराणों की रचना की गई, इसके बाद गीता, रामायण, महाभारत जैसे ग्रंथ बने, बाद में वेदान्त दर्शन, सत्यार्थ प्रकाश, प्रज्ञा पुराण जैसे ग्रंथों की रचना हुई।
         इन सब बातों से यह स्पष्ट हो जाता है कि देश, काल, परिस्थिति के हिसाब से महापुरुषों द्वारा समय समय पर धार्मिक और समाजिक नियम बनाए जाते हैं।
           कई प्राचीन नियम आज के समय में व्यावहारिक नहीं हैं, पहले राजा सगर के 60 हजार पुत्रों का उल्लेख है, ध्रतराष्ट्र और वशिष्ठ जी के 100 पुत्रों का उल्लेख है, रावण के 01 लाख पुत्र बताए जाते है, मनु महाराज की 60 पुत्रियों का वर्णन है, भगवान श्री कृष्ण के 16108 रानियों एवं प्रत्येक के 10,10 पुत्र होने का उल्लेख मिलता है, क्या आज के सन्दर्भ में यह सम्भव है?
       पहले श्रवण कुमार द्वारा अपने माता पिता को कंधे में उठाकर तीर्थ यात्रा करवाई जाती थी, आज के सन्दर्भ में जब साइकिल से लेकर हवाई जहाज तक के सर्व सुलभ साधन उपलब्ध हैं तो किसी श्रवण कुमार द्वारा अपने माता पिता को कंधे में बिठाकर तीर्थ यात्रा कराना, श्रृद्धा का नहीं बल्कि हसी का पात्र बनेगा।
         पहले "दस पुत्रवती भव"का आशीर्वाद दिया जाता था, लेकिन अब क्या यह उचित समझा जायगा?
        पहले हाथी, घोड़े से सेना का संचालन होता था, आयुध के रूप में तलवार, तीर _धनुष, गदा, त्रिशूल के माध्यम से लड़ाइयां होती थी, क्या आज एटम बम और बडे़ बड़े टैंकर, जंगी जहाजों के जमाने में पुरानी पद्घति से काम चल सकता है ?
         कहने का तात्पर्य यही है कि सनातन धर्म ने सदा से विकसित सभी अच्छाइयों को आत्म सात किया है, लकीर के फकीर बनने या रुढ़वादिता से काम चलने वाला नहीं है। समय के साथ परिवर्तन अवस्यंभावी है,।
         इसके अलावा जिन ग्रंथो मे विधवा विवाह को निषेध बताया गया है उन्ही में "आत्म बस सर्वभूतेषु," सर्वे भवन्तु सुखिनः ""वसुधैव कुटुंबकम् "की बात भी कही गई है। जिन शास्त्रों में विधवा विवाह को निषेध बताया गया है उसी में यह बात लिखी गई है कि अगर एक व्यक्ति का त्याग करने से पूरे परिवार को बचाया जा सकता है तो उस व्यक्ति का त्याग कर देना चाहिए, अगर एक घर का त्याग करने से पूरे गांव को बचाया जा सकता है तो उस घर का त्याग कर देना चाहिए, अगर एक गांव का त्याग करने से पूरे राज्य या देश को बचाया जा सकता है तो उस गांव का त्याग कर देना चाहिए।
         इसी सिद्धांत के अधार पर ही भारत से पकिस्तान को अलग किया गया था। भगवान राम ने सीता का परित्याग इसी आधार पर किया था कि अगर सीता जी का त्याग करने से राज्य की सुरक्षा होती हैं, राज्य में मर्यादा कायम रहती है, तो उन्होंने सीता जी का परित्याग किया था। भगवान राम ने बालि का बध भी नियम विरुद्ध किया था, भगवान विष्णु ने बृंदा के साथ भी नियम विरुद्ध छल किया था, भगवान श्री कृष्ण ने भीष्म, द्रोणाचार्य, कर्ण और दुर्योधन के बध मे भी शास्त्र विरुद्ध कार्य किया था। द्रोपदी, अहिल्या, तारा, कुंती, मंदोदरी को इसी आधार पर "पातक नाशनी पंच कन्या "कहा जाता है।इन सब उदाहरणों से यह स्पष्ट है कि समाजिक न्याय की स्थापना के लिए अगर एक सीमा तक शास्त्र की बात को नजरंदाज करना पड़े तो कर लेना चाहिए, और यह कृत्य धर्म विरोधी या न्याय विरोधी नहीं माना जायगा क्योंकि इसमें लोक कल्याण का भाव प्रधान है।
          एक और उदाहरण से इस बात को समझने की कोशिश करते हैं, कहा जाता है कि _

       "सॉच बराबर तप नहीं,
         झूठ बराबर पाप।।"

         अब कल्पना कीजिए कि एक कसाई किसी गाय को मारने के लिए गाय के पीछे दौड़ता हुआ आता है, और वह गाय आपकी जानकारी में कहीं छिप जाती है, अब वह कसाई आपसे गाय के बारे में पूछता है, अब अगर आप सच बोलते हैं तो वह कसाई गाय की हत्या कर देगा और यदि आप झूठ बोल देते हैं कि आपने गाय को नहीं देखा तो कसाई लौट जाएगा तथा गाय की जान बच जायेगी। अब एसी स्थिति में सच बोलना पुण्य होगा या झूठ बोलना! निश्चित ही है कि किसी की प्राण रक्षा के लिए अलग थोड़ा सा झूठ बोल लिया जाय तो वह पाप नहीं कहलाएगा।
         यही बात विधवा विवाह के लिए भी समझी जानी चाहिए। मान लीजिए किसी लड़की की शादी हुई उसका पति सेना में है, शादी के कुछ दिनों बाद ही लड़ाई छिड़ जाती है और उसका पति शहीद हो जाता है, अब आप विचार कीजिए कि उस लड़की को जो अब विधवा हो चुकी है उसे जिंदगी भर नारकीय जीवन बिताने पर मजबूर करना कैसे धर्म संगत, या न्याय संगत हो सकता है ? किसी लड़की को उसके दाम्पत्य सुख या मातृत्व सुख से वंचित करना किसी भी तरह जायज नहीं ठहराया जा सकता।
        हमारा सनातन धर्म "जियो और जीने दो" के सिद्धांत पर आधारित है, इसमें_
      "यत्र नार्यस्तु पूजयंते, रमंते तत्र देवता "
               की बात कही गई है, अस्तु विधवा विवाह को कानूनी मान्यता तो मिल ही गई है, इसे समाजिक मान्यता मिलनी ही चाहिए, और यह कहीं से भी धर्म या शास्त्र विरोधी नहीं माना जायगा।

    -डा शिव शरण श्रीवास्तव "अमल "

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