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बड़े बरगद की छाया में खड़ा,
वो घर नहीं मिलता,,,!
दिवारों पर टंगा वो काठ का,
अब हल नहीं मिलता,,,!!
शहर की धाक से हैं मौन,
दीवारें आज माटी की,,,!
महकते गांव में टूटा सा,
वो अब छप्पर नहीं मिलता,,,!!
नदी भी हो गई है शून्य,
व्याकुल सूखकर दलदल,
समर्पित कर चुकी है प्रान,
अब वो जल नहीं मिलता,,,!!
लाल नोटों के दरवाजे में,
माथा टेकते हैं सब,,,!
वृद्ध मां-बाप के आगे झुका,
अब वो सिर नहीं मिलता,,,!!
यूं महलों में खड़ा बचपन,
तरसता सोचता है ये,,,!
पुरानी माँ की साड़ी का,
वो अब आँचल नहीं मिलता,,,!!
बिता दी उम्र जिस बेटे के,
सपने को सजाने में,,,!
लिफाफा भेज देता है
वो कभी आकर नहीं मिलता,,,!!😒
----- दुर्गा पाण्डेय जुड़ियापुर ✍✍✍
🙏✍❤🇮🇳🚩