ए साहिब जो तुम कहीं से आ जाते
ए साहिब जो तुम कहीं से आ जाते
सावन में न कटती, बिरहा की रातें
जब जब आती हैं तुम्हारी यादें
चांद से करती हूं बस तेरी बातें
तरसे हैं हरपल तेरे दीदार को नैना
मुझको तुमसे बस इतना है कहना
बांध लो अब जीवन भर का बंधन
तुमसे दूर नहीं अब इक पल रहना
दर्पण भी पूछ रहा मुझसे बार-बार
किसके नाम का कर बैठी हूं श्रृंगार
पड़ जाती मुझ पर तेरी एक नज़र
चेहरे पे आ जाता और भी निखार
यादों के झौंके आते, आते ही शाम
वैरन पवन भी लाई न कोई पैगाम
ए साहिब तुम काश कहीं से आ जाते
सदियों से लम्बी है, ये बिरहा की रातें।
सुशी सक्सेना