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    बारहमासा

          :--- मुकेश कुमार दुबे "दुर्लभ'
           ( शिक्षक सह साहित्यकार)
            सिवान, बिहार

    बारहमासा
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    भारतवर्ष में वर्ष में छः ऋतुएं आती है,
    अपने-अपने समय पर अपना रंग दिखाती है।
    वर्षभर में होते है पूरे बारह महीने,
    और एक ऋतु में होते हैं दो महीने।
    चैत्र, बैसाख, ज्येष्ठ, आषाढ़,सावन, भादों,
    आश्विन, अगहन,पौष,माघ और फाल्गुन।
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               ‌‌१ चैत्र
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    चैत्र का पावन महिना होता है बड़ा आनन्ददायक,
    बसंत ऋतु का मनोरंजक चहुं ओर वातावरण।
    प्रकृति रंगीली होती खेतों में तैयार फसलें कटती,
    कोयल भी कुहुं-कुहुं कर गीत सुनाती।
    आमों में है बौर आ गए कोयल पेड़ों पर आ गाती,
    महुआ के बगीचे में जाकर मीठे-मीठे महुआ फूल लाते।
    रमणियां करती प्रकृति विहार, 
    हुए युवक से नयना चार।
    नयनों की नयनों से हुई बात,
    फिर होने लगी मुलाकात।
    चैत्र नवरात्रि में पूजा के बहाने,
    दोनों लगे पास-पास आने।
    बातें, मुलाकातें और प्रेम-प्रलाप,
    विकसने लगे पाकर बसंत का साथ।
    चैत्र का हर्षित महिना,
    मुश्किल किया नवदंपत्तियों का जीना।
    नवयौवनाएं भी करती प्रेमालाप युवा संग,
    रोमांचित हो रहा सब अंग-अंग।
    जिसके पिया करे दूर देश प्रवास,
    बुझती नहीं उनकी कभी प्यास।
    तन-मन में एक आग है लगती,
    पर अपना दुखड़ा वह किससे कहती।
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                  २. बैसाख
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    वैशाख का महीना आया,
    घर में अब खुशियां लाया।
    खेतों से घर आने लगे अनाज,
    कृषकों को हुआ अपने पर नाज।
    घर में सभी जन है प्रमुदित,
    जीवन बीतता हंसी-खुशी।
    बैसाखी का त्यौहार भी आया,
    पंच प्यारों का याद दिलाया।
    मोहिनी एकादशी और बुद्ध पूर्णिमा,
    आता पर्व बहुत खुशनुमा।
    आम के पेड़ों पर फलने लगे आम,
    बगीचे में घूमते सब सुबह शाम।
    दिन के समय थोड़ी गर्मी रहती,
    घर में रहने को ही मां कहती।
    पर तरुण-तरुणियां मौके निकालते,
    समय पाकर एक दूजे से मिलते।
    प्यार अब चढ़ने लगा था परवान,
    पाने को आतुर था अपनी पहचान।
    बिरहिनि साजन की राहें ताकती,
    शाम को निराश घर में लौटती।
    प्रीतम जाने है किस भेंस,
    कब आएंगे अपने देश।
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                  ३. ज्येष्ठ
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    जेठ का महीना गर्मी लाया,
    गर्मी ने है बहुत रुलाया।
    तन से हमेशा पसीना बहाता,
    हवा के लिए हाथ पंखा रहता।
    गर्मी ने किया सबको व्याकुल,
    पास आए सभी शत्रुता भूल।
    अहि मयूर और मृग बाघ,
    गर्मी ने किया सबको एक साथ।
    पकने लगे थे अब आम के फल,
    प्रेम से खाते सभी यह रसीला फल।
    गंगा दशहरा और संत कबीर जयंती,
    मनाते हैं सभी हंसी-खुशी।
    प्रेमी-प्रेमिका थे पहचान को व्याकुल,
    एक-एक दिन लगते जैसे शूल।
    माता-पिता से अपने बतलाए,
    खुशी-खुशी वे साथ है आए।
    पुरोहित बुला दिखाएं शुभ दिन,
    परिणय बंधन में बंधे दोनों शुभ दिन।
    पर रही थी वैसे ही उदासी,
    प्रियदर्शन की अखियां प्यासी।
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                   ४. आषाढ़
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    जेठ बीता आया आषाढ़,
    बढ़ती गर्मी से हुआ बुरा हाल।
    गर्मी थी अब प्रचंड स्तर पर,
    वर्षा के लिए हुए सब कातर।
    आसमान में ताकते किसान,
    मेघ बरसो हम रोपे धान।
    नभ में बादल आते जाते,
    कभी-कभी वे है बरसाते।
    पर उससे न बुझती धरती की प्यास,
    होने लगे किसान निराश।
    नव दंपति थे अति व्याकुल,
    हुई धन चिंता अब प्रेम को भूल।
    सजनी को साजन समझाया,
    देखो अभी सावन नहीं आया।
    मैं जाता हूं कमाने दूर देश,
    तुम रहना खुशी स्वदेश।
    जल्दी ही कमा कर आऊंगा,
    बहुत सारा धन लाऊंगा।
    फिर रहेंगे हम दोनों साथ-साथ,
    फिर होना नहीं पड़ेगा निराश।
    जीवन चलाने के लिए धन चाहिए,
    कमाने के लिए मुझे जाना चाहिए।
    बुझे मन से सजनी ने हामी भरी,
    भरे कंठ से सजना को विदा की।
    विरही अब तक थी उदास,
    जाने कैसे बुझेगी नैनों की प्यास।
    मेरे साजन ऐसे न थे,
    न जाने पर क्यों अभी दूर थे।
    दिनभर ताकते रहती राह,
    और रातों में भरती आह।
    गुप्त नवरात्रि में अंबे मां को मनाती,
    मां से सजना की सलामती मांगती।
    गुरु पूर्णिमा का भी पर्व मनाया,
    गुरु के चरणों में शीश नवाया।
    गुरुदेव से मांगा आशीष,
    पिय को कुशल रखे जगदीश।
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              ५. श्रावण (सावन)
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    आया सावन का मनभावन महीना,
    सभी महीनों का है जो नगीना।
    कैलाशपति शिव जी का मास यह,
    पुजते शिव को हर हर बम कह।
    सोमवार, शिवरात्रि, नाग पंचमी,
    हरियाली तीज, रक्षाबंधन, कजरी।
    है सारे पवित्र त्यौहार इस माह के,
    मनाते सभी हर्षोल्लास, प्रेम से।
    रिमझिम-रिमझिम बरसता सावन,
    मौसम को बनाता है सुहावन।
    हर्षित होते किसान मेघ देख,
    हर्षित धरती-गगन सारे खेत।
    बादल देख वन में मोर है नाचे,
    बारिश की फुहारों में किसान भी नाचे।
    युवतियों ने बागों में डाले झूले,
    साथियों संग खुशी से झूलते झूले।
    सजनी का मन भीतर ही कचोटे,
    किस्मत अपने है अब खोटे।
    दूर बसे जो साजन मेरे,
    कौन खुशियां मनाए संग मेरे।
    विरही घर में अपना सिर धुनती,
    रात-दिन अपने किस्मत पर रोती।
    किस जन्म में पाप किए है,
    सजनी से क्यों दूर पिया है।
    ऊपर से सावन बरसता है,
    पर तन, मन में आग लगता है।
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                  ६. भादों (भाद्रपद)
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    सावन बीता भादों आया,
    गणेशोत्सव की खुशियां लाया।
    गणेश चतुर्थी,बहुला,हरितालिका तीज,
    गणेशोत्सव चलता दस दिन।
    सभी खुशी से इसे मनाते,
    गणपति बप्पा मोरया है कहते।
    श्रीकृष्ण जन्माष्टमी आता,
    श्रीकृष्ण जन्मोत्सव की खुशियां लाता।
    मुसलाधार बरसता पानी,
    पानी में रहती मछली रानी।
    किसान खेतों में धान उगाते,
    मेहनत का फल सब है पाते।
    सजनी के मन अब डर समाए,
    साजन अब तक क्यों न आए।
    देकर गए हैं एक निशानी,
    कैसे संभलूं मैं नहीं सयानी।
    रह-रहकर है जी मिचलाता,
    बूरा स्वप्न है मन में आता।
    कैसे कटेंगे दिन अब मेरे,
    आस किसका है बिन तेरे।
    घर के बाहर मेघ जलधारा,
    सुखे न कभी नयन जलधारा।
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                ७. क्वारी (आश्विन)
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    जाता भादों और माह आता अश्विन,
    होने लगती है अब बरसा में कमी।
    इंद्रधनुष बनते आसमान में,
    थोड़ी-थोड़ी बरसा जहान में।
    बरसात बीतती शरद ऋतु आई,
    फुले कास सकल मही छाई।
    दिन में सूरज का है ताप प्रचण्ड,
    पर रात में ओंस से भींगता भूखंड।
    पितृ पक्ष में पितरों को ध्याते,
    शुक्ल पक्ष में दुर्गा पूजा मनाते।
    नौ दिन मां दुर्गा की होती पूजा,
    अलग-अलग रूपों में भक्त करते पूजा।
    दसवें दिन मां का होता विसर्जन,
    भक्ति युक्त सब करते मां का अर्चन।
    शरद पूर्णिमा भी सभी मनाते,
    प्रेम सहित है जीवन बिताते।
    सजनी रहती थी दिन-रात उदासी,
    कोप गृह की बनी थी वासी।
    सखिया आती उसे मनाती,
    उसे मां के दरबार ले जाती।
    मां के दरबार में करती वह विनती।
    मां अंबे हर दुखियों की सुनती।
    रो-रो कर मां से अरज लगाती,
    हे मां अंबे, साजन को क्यों न बुलाती।
    एक तेरा ही आसरा है मां,
    साजन को घर बुला दो मां।
    नवरात्रि का व्रत करूंगी,
    प्रेम सहित भोग अर्पित करूंगी।
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                  ८. कार्तिक
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    अश्विन के बाद कार्तिक मास आया,
    दीपों का त्यौहार है लाया।
    जगमग करती आई दिवाली,
    पांच पर्वों का है पुंज दिवाली।
    धनतेरस को धन्वंतरि जयंती,
    रूप चौदस से जगमग चतुर्दशी।
    अमावस्या को दीवाली मनाते,
    बिना चांद के धारा जगमग होती।
    करते गणेश और लक्ष्मी की पूजा,
    धन और मंगल के कोई और देव न दूजा।
    शुक्ल प्रतिपदा को गोवर्धन बनाते,
    द्वितीया को अंकुश और भैया दूज मनाते।
    ऐसे पूर्ण होता पंच पर्व त्यौहार,
    सब लोगों में बढ़ता प्यार।
    सूर्य षष्ठी का त्यौहार भी आता,
    आस्था का महापर्व कहलाता।
    कार्तिक पूर्णिमा है पावन दिन,
    मनाते इस दिन देव दिवाली।
    सजनी घर में बैठी थी अकेली,
    ढुढ़ते उसको आई सहेली।
    आंसु पोंछ कर उसे नहलाया,
    साफ-सुथरे कपड़े पहनाया।
    घर आंगन भी उसका संजाया,
    प्रेम सहित त्यौहार मनवाया।
    पंच पर्व उससे पूर्ण करवाया,
    गणेश लक्ष्मी की आगे शीश झुकवाया।
    सूर्य षष्ठी व्रत भी करवाया,
    छठी मां से पुत्र आशीष दिलवाया।
    आशीष पाकर मिली थोड़ी खुशी,
    पर सजना के बिना रहती दुखी।
    कहकर गए जल्दी आएंगे,
    बहुत सारा धन कमा कर लाएंगे।
    न जाने साजन क्यों नहीं आए,
    इंतजार में बहुत दिन बीत गए।
    मन में तरह-तरह के दु:स्वप्न आते,
    मेरे सजना क्यों नहीं आते।
    किसके सहारे जिऊंगी मैं,
    किस घाट लग पाऊंगी मैं।
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             ९. अगहन ( मार्गशीर्ष)
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    अगहन का महिना ठंढी लाया,
    ठंडी मन को नहीं है भाया।
    घाम लगता है जैसे हो चांदनी,
    पर अगहन मास भी है पावनी।
    अगहन पंचमी सीता विवाह का दिन,
    मनाते सभी सीता-राम विवाह का दिन।
    खेतों में बोते गेहूं की फसलें,
    आलू, दलहन, तिलहन, भी संग में।
    सजनी घर में हो रही परेशान,
    साजन बिना नहीं जीना है आसान।
    चल रहा अब छठा महीना,
    पर साजन का पता कहीं ना।
    बच्चे को कैसे पालूंगी,
    पिता का नाम कैसे बताऊंगी।
    पूछेगा जाओ पापा कहां हैं,
    क्या बताऊंगी मुझे पता कहां है।
    सोच-सोच सजनी होती दुखी,
    साजन ही कर सकता उसे सुखी।
    सखियां आती उसे समझाती,
    गले लगा कर दुख भगाती।
    कोशिश करती उसे खुश रख सके,
    जितना हो सके उसे चैन दे सके।
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                      १०. पौष
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    दशम मास होता है पौष,
    ठंड अपनी जमाती धौंस।
    भीषण ठंढ से सब है व्याकुल,
    हर नर-नारी, बालक, युवा, वृद्ध।
    उष्ण कपड़े है सभी पहनते,
    ठंड से बचने की कोशिश करते।
    उष्ण बिस्तर भी घर में लगाते,
    पर ठंढी से राहत नहीं पाते।
    कृषक फसलों की निगरानी करते,
    भारी ठंढ में खेतों पर रहते।
    चारों तरफ लोग अलाव जलाते,
    तब ठंढी से है राहत पाते।
    पर सजनी को चैन है कहां,
    सजना को ढूंढती है यहां वहां।
    उष्ण बिस्तर भी कांटे लगते,
    सारे कष्ट अकेले सहती।
    भारी ठंढ से हालत है खराब,
    कैसे वह जलाए आग।
    तन मन में तो लगी है आग सी,
    भीतर बूझ रही ज्योति प्यार की।
    सखियां आकर उसे समझाती,
    मीठी-मीठी बातें कहती।
    रखना है ध्यान तुझे प्रेम निशानी का,
    देना है जन्म इस निशानी को।
    ईश्वर पर तुम करो भरोसा,
    मुश्किल काम होंगे आसान।
    साजन तेरे आएंगे एक दिन,
    लौट आएंगे तेरी खुशी के दिन।
    सूर्यनारायण हो रहे उतरायण,
    शुरू होंगे अब सारे शुभ कर्म।
    मकर संक्रांति, पोंगल, लोहड़ी,
    इस माह के त्योहार हैं यह सभी।
    अलग-अलग नाम से सभी मनाते,
    फसलों का त्योहार इसे कहते।
    खेतों में गन्ने की मीठी-मीठी से सुगंध,
    कल्लुहाड़ी से आती मीठे ताजे गुड़ की गंध।
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                  ११. माघ
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    वर्ष का एकादस मास है माघ,
    ठंडी जैसे हो रही हो बाघ।
    संकटनाशक गणेश चतुर्थी मनाते,
    विघ्न-बाधा सब दूर भगाते।
    बसंत पंचमी का त्यौहार है आता,
    सरस्वती पूजा सबके मन भाता।
    होने लगेगी ठंढ कम अब,
    बसंत ऋतु भी आएगी अब।
    बसंत उत्सव की करो तैयारी,
    मिलेगी सबको खुशियां प्यार की।
    बौर लगने शुरु होंगे आमों पर,
    कोयल भी आकर कुकेगी डालों पर।
    पर विरही सजनी रोती रहती,
    मुंह से वह कुछ भी नहीं कहती।
    अश्रुधारा भी जैसे सुख चले हो अब,
    मेरे साजन आओगे तुम कब।
    कौन देगा मुझे दाना-पानी,
    रो-रो कर कहती दुखिया रानी।
    बार-बार आकर सखियां समझाती,
    पर उनकी भी जैसे हिम्मत टुटती।
    प्रकट में उससे कुछ भी न कहती,
    पर अपने में सब बातें करती।
    कितने निष्ठुर हो गए इनके साजन,
    ऐसे भी कोई छोड़ता है क्या घर-जन।
    कह कर गए जल्दी आएंगे,
    घर चलाने को धन कमाकर लाएंगे।
    पर अब तक नहीं अता-पता नहीं,
    क्या हुआ कुछ कह सकते नहीं।
    घर पर भी तो कमा सकते थे,
    खेती भी तो कर सकते थे।
    रहते दोनों साथ-साथ यहां,
    ऐसे दिन देखने पड़ते कहां।
    इस दुनिया के दिन भारी है,
    इस पर ही आई विपदा सारी है।
    दे गया पेट में एक निशानी,
    कैसे उसे जन्म देगी यह रानी। दिन पर दिन दुख बढ़ता ही जाता,
    खत्म होने को ही नहीं आता।
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                   १२. फाल्गुन
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    फाल्गुन वर्ष का अंतिम महीना
    मौसम है होता बड़ा सुहावना।
    बसंत ऋतु काल हाल है होता,
    हरियाली चारों ओर है होता।
    पेड़-पौधों पर आती नई कोंपल,
    आम्र वृक्षों लगते हैं बौर।
    कोयल बागों में है आती,
    कुहूं-कुहूं कर गीत सुनाती।
    खेतों में पौधे पर फूल है खिले,
    अलसी के नीले सरसों के पीले।
    नए-नए पौधे चारों ओर उगते,
    मानो धरती ने ओढे हरियाली की चादरें।
    महाशिवरात्रि का पर्व आता पावन,
    शिव-पार्वती के विवाह का दिन पावन।
    करते व्रत सब महाशिवरात्रि का,
    पूजा करके पार्वती और शिव का।
    भोलेनाथ वरदान है देते,
    भक्तों की इच्छा पूरी करते।
    मदनोत्सव का महीना है फाल्गुन,
    वसंतोत्सव, मदनोत्सव मनाते सब जन।
    प्रेमांकुर फूटते चहूं ओर,
    तरुण-तरुणी दिखते हर ओर।
    चोरी छुपे परिमालाप करते,
    पर अपने अभिभावक से डरते।
    नवयौवनाएं मन में हिलोरें लेती,
    प्रेमी के संग मस्ती करती।
    रंगोत्सव त्यौहार मनाते,
    होली में सब अच्छा लगते।
    बिरही सजनी रो भी नहीं पाती,
    सजना की हमेशा याद सताती।
    नौ माह हुए उसके पूरे,
    बिरही ने सुंदर बालक जने।
    सखिया सब मिल खुशी मनाती,
    पर विरही को कुछ ठीक नहीं लगती।
    साजन के बिना सब सूना-सूना है,
    उसके बिन सुखचैन कहां है।
    सखियां बार-बार समझाती,
    सुंदर पुत्र का मुख दिखलाती।
    पर सजनी सिर्फ रोती-गाती,
    पिया-पिया रात दिन पुकार की।
    प्रभु ने उसके पुकार सुन लिए,
    पति को सपने में दर्शन है दिए।
    दिखाया पत्नी का उदास चेहरा,
    सुंदर सलोना पुत्र का मुखड़ा।
    प्रभु बोले, 'अपने घर जाओ',
    पत्नी का अपने दुख मिटाओ।
    अगले दिन पति घर आए,
    घर में सारी खुशियां लाए।
    सजनिया फूली नहीं समाती,
    हंसी-खुशी के गीत है गाती।
    उसके घर भी आया रौनक,
    खुशी से सब ने मनाया रंगोत्सव।
    :--- मुकेश कुमार दुबे "दुर्लभ'
           ( शिक्षक सह साहित्यकार)
            सिवान, बिहार

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