(कन्नौजी रसरंग)
*विरहणी ताप*
पावस की घटा गर्जन बदरी , बिजुरी लपकै नभ खन खन में।
पिय दूर बसे जाय सीमा पै, हिय दग्ध विरह लहकै तन में।।
वन बाग तड़ाग प्रफुल्ल सखी, पर नाहिं उमंग मनस मेरे,
उत नाचत मोर विभोर प्रखर , इकलो मन आहत क्रंदन में।।
घर आंगन गैल कींच मग में , सर ताल खेत खलिहान भरे।
झर झर बूंदैं नखशिख भीजी, पाती बांची मन प्रान हरे।।
नाचैं बूंदैं अंगना छमछम , पिय बिन मल्हार सुहाय कहां,
हमकौं सावन भादों सूने, जनु विरही ताप आधान धरे।।
अबोल छटा ऋतु पावस की, उमड़ा नद सुरुचि लगै कगरी।
आरोह वयस भओ प्रेम कठिन, प्रेम की बीथि सखी सकरी।।
ऐ मेघ बिरन पिय से कहियो, घर आवौ विरहिन राह तकै,
भये कंगना हार हमेल दुखी ,चुप पायल मुदरी नथ तगरी।।
खन भीतर बाहिर चैन कहाॅं , भई प्रेमपगी प्रियतम सिगरी।
आरोह वयस झुकती डाली , अब दूभर योवन को मग री।।
जेहिके पग जाय बिवाई, सोइ- जानै हिय पीर पराए की,
अब बहुत भई आय जाओ बलम, कहूं कैसे किन्हें मन की सखि री।।
*-प्रखर दीक्षित*
*फर्रुखाबाद*