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    हम तड़पते रहे

    हम तड़पते रहे
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    यूं ही हंसते रहे, मुस्कुराते रहे,
    गम को सीने में अपने छुपाते रहे,
    जिसका इंतजार करते सदियां गुजरी,
    वो गैरों की महफ़िल सजाते रहे।

    खाई थी कसमे संग- संग जीने मरने की,
    सात जन्मों तक साथ-साथ रहने की,
    कैसे बदलते हैं इंसान मौसम की तरह,
    इसका नमूना भी मुझको दिखा कर गए।

    कैसे होगी बसर जिंदगी उनके बिना,
    कैसे धड़केगा यह दिल अब उनके बिना,
    कैसे सांसे लूंगा मैं अब उनके बिना,
    हम यह सोचते रहे, वे दगा कर गए।

    अब तो कटती न रातें न कटता है दिन,
    कैसे गुजरेंगे मेरी जिंदगी के बाकी दिन,
    "दुर्लभ" हुआ जीना अब एक पल भी मेरा,
    हम तड़पते रहें, वे मुझे तड़पाते रहे।
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    मुकेश कुमार दुबे "दुर्लभ"
    ( शिक्षक सह साहित्यकार)
    सिवान, बिहार

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