मेरी चाह __
ज्यादा चाह नहीं है मेरी,
केवल सच्चा प्यार चाहता।
मानवता को आंच न आए,
बस इतना आधार चाहता।।
बापू, तुलसी, या कबीर का,
निर्मल मार्ग जहां बसता हो।
जाति, पंथ, पाखंडवाद भी,
डर कर बहुत दूर रहता हो।।
पंच तत्त्व के मर्म ज्ञान का,
हो प्रकाश यह सार चाहता।
मानवता को आंच न आए,
बस इतना आधार चाहता।।
पूज स्वयं हाथों से नरता,
सच्चाई की ज्योति जगाए।
भगत सिंह, विश्मिल, सुभाष सा,
मातृ भूमि हित दाव लगाए।।
राम राज्य का घाट जहां हो,
केवल वही कगार चाहता।
मानवता को आंच न आए,
बस इतना आधार चाहता।।
राणा जैसे शासन कर्ता,
जो चेतक की ऐंड लगाए।
बीर शिवाजी से जन नायक,
राष्ट्र धर्म हित प्राण गवाएं।।
मानव का, मानव जीवन में,
मानवीय व्यवहार चाहता।
मानवता को आंच न आए,
बस इतना आधार चाहता।।
धर्म राज्य के सत्य, शील का,
पावन पंथ जहां मिलता हो।
सुख सूरज के आ जाने से,
दुख रूपी तम मिट जाता हो।।
निर्धनता के घाव भरे जो,
ऐसी मैं सरकार चाहता।
मानवता को आंच न आए,
बस इतना आधार चाहता।।
जन जीवन के चित में छाई,
जहरीली आंधी ईर्ष्या की।
तपता मानव मन प्यासा है,
टूटी आस सलिल वर्षा की।
उर के हर सूखे मरुथल हित,
स्नेह _सिक्त बौछार चाहता।
मानवता को आंच न आए,
बस इतना आधार चाहता।।
जन्म भूमि पर निश्छल श्रृद्धा,
वंदन, अर्चन, आराधन हो।
कुर्बानी की, बलिदानों की,
गाथाओं का सद वाचन हो।।
भारत की महिमा का हिमिगिरि,
जैसा मैं विस्तार चाहता।
मानवता को आंच न आए,
बस इतना आधार चाहता।।
क्षमा, दया, करुणा, ममता का,
सिंधु जहां पर लहराता हो।
स्वच्छ, सादगी, सज्जनता का,
भाव सदा ही गहराता हो।।
कुटिल नजरिया नष्ट करे जो,
ऐसा उचित विचार चाहता।
मानवता को आंच न आए,
बस इतना आधार चाहता।।
पीड़ाएं जग की पीने को,
हृदय हमेशा अकुलाता हो।
सत्कर्मों का दीप जहां पर,
मन मंदिर में जल जाता हो।
काम, क्रोध, मद, अहंकार से,
मुक्ति हेतु पतवार चाहता।
मानवता को आंच न आए,
बस इतना आधार चाहता।।