कोई परिणाम नहीं मिला

    मेरे प्रिय बाबा जी - वरुण तिवारी




    शून्य मन अब हो चला है
    पथिक आगे अब बढ़ चला है
    बिन किताबी ज्ञान के भी
    बहुत हमको दे चुका है

    राजनीति से कूटनीति तक
    आपसे सब हमने पाया
    गर हम बिफरे कही
    वो ज्ञान ही तब काम आया


    सब मंगल अब हो रहा था 
    किसी को कोई नही थी दुविधा
    समय का किसको क्या पता
    विधाता ने जो लिख दी विधा
    अवस्था आ चुकी थी बुढ़ापा
    ८० लगभग हो चुके थे
    अंतरात्मा उनको झकझोरती
    अपनो से वे थक चुके थे


    शाम ऐसी इक हुई फिर
    शहनाई धुन छेड़ रही
    छोटे को घोड़ी चढ़ा कर
     आत्मा मुख मोड़ रही


    वो गए अब नही रहे
    विलीन हो चुके पंचतत्व में
    ज्ञान चक्षु अब खुल गए
    जब चले गए अमरत्व में

    *वरुण तिवारी मुसाफिरखाना*

    एक टिप्पणी भेजें

    Thank You for giving your important feedback & precious time! 😊

    और नया पुराने

    संपर्क फ़ॉर्म