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    पिता और पितृत्व

    पिता और पितृत्व
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    पिता धरा पर ईश्वर की अनमोल कृति है। प्रकृति और पुरुष के मेल से सृष्टि का संचालन होता है। नर और नारी सृष्टि संचालन रूपी गाड़ी के दो पहिए होते हैं। एक के बिना दूसरे की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। नर और नारी के वीर्य और रज से वंश वृद्धि की क्रिया संचालित होती है। पुरुष और प्रकृति, नर और नारी या पुरुष और स्त्री के सहयोग से दांपत्य का संचालन होता है। इसमें पुरुष को पिता और स्त्री को माता की संज्ञा दी जाती है। दूसरे शब्दों में, नर और नारी के संयोग से जब शिशु का जन्म होता है, तभी पिता और माता भी अपनी संज्ञा प्राप्त करते हैं। इसमें से नर साथी पिता और नारी (मादा) साथी माता कहलाती है। इसे ही आनुवंशिक माता-पिता या डीएनए माता-पिता भी कहा जाता है। कई बार विपरीत परिस्थितियों में, आनुवंशिक या जनदात्री माता-पिता कोई और होता है और पालन कर्ता माता-पिता कोई और होता है। अथवा सिर्फ पिता अलग हो सकता है। जहां तक दत्तक संतान की बात आती है, उसमें दोनों ही अलग होते हैं। रामायण और महाभारत में कई ऐसे उदाहरण मिलते हैं जिसमें पालक पिता और अनुवांशिक पिता अलग-अलग होते हैं। नल और नील देव शिल्पी विश्वकर्मा के औरस पुत्र थे। हनुमान के लौकिक (पालक) पिता केसरी थे, पर वे वायु देव के औरस पुत्र थे। श्री कृष्ण के आनुवांशिक माता-पिता देवकी और वसुदेव थे, पर पालक माता-पिता यशोदा और नंद थे। पांडव, महाराज पांडु के पुत्र थे, पर पांडु उनके पालक पिता थे। पांचो पांडव अलग-अलग देवताओं के अंश से उत्पन्न हुए थे। निष्कर्षत: हम कह सकते हैं कि पिता आनुवंशिक (जन्मदाता) और पालक दो प्रकार के हो सकते हैं। अस्तु, पिता कोई भी हो, उसका कार्य संतान का पालन- पोषण करना, शिक्षा प्रदान करना और रक्षा करना होता है।
    किसी भी माता-पिता के लिए संतान अति प्रिय होते हैं। संतान सुख की प्राप्ति के लिए संसार के सभी सुखों का परित्याग भी करना पड़े तो इसके लिए तैयार रहते हैं। इसमें माता या पिता, किसी का दायित्व कम या अधिक नहीं होता। दोनों ही प्राणार्पण से संतान का पालन करते हैं। परंतु प्रायः देखा जाता है कि पिता को कठोर (पाषाण) हृदय और माता को कोमल (कुसुम) हृदय कहा जाता है। प्राय: लौकिक संसार में और साहित्य में भी माता को अधिक महत्व दिया गया है, यह पिता के साथ अन्याय है। पिता का दायित्व और सहयोग संतान के पालन- पोषण में कहीं भी कम नहीं है। एक माता के हृदय में अपनी संतान के लिए जितना प्रेम होता है, उससे थोड़ा भी कम प्रेम पिता के हृदय में नहीं होता है। वह तो परिस्थितियां होती है, जिसमें पड़कर पिता को कठोर हृदय बनना पड़ता है। संतान को संसार में तरह-तरह के सुख- दुख और बाधाओं का सामना करना पड़ता है। यदि पिता दिखावटी रूप में अपनी संतान के लिए कठोर न बने तो संतान का भविष्य अंधकारमय हो जाएगा। पिता ही संतान को मजबूत हृदय और जीवन में आने वाली बाधाओं से लड़ने में सक्षम बनाता है। कई बार देखा गया है कि पिता से ज्यादा कठोर माता ही रहती है। अधिकतर पुत्रियों के मामले में देखा गया है। परंतु कई बार पुत्र के लिए भी माता, पिता से अधिक कठोर देखी गई है। कई बार एकल माता-पिता होते हैं जिन्हें दोनों भूमिका निभानी होती है। वे अपनी संतान के प्रति कुछ ज्यादा ही कठोर होते हैं।
    यह समाज तो एक पिता को रोने का हक भी नहीं देता है। कहता है- " पुरुष हो तो मत रोओ। मर्द को दर्द नहीं होता है।" पर मर्द को दर्द तो होता ही है। उसके सीने में भी दिल धड़कता है। उसकी आंखों में आंसू है जो बाहर निकलना चाहते हैं। पर समाज के डर से वह भीतर ही जमकर पत्थर बन जाता है। लेकिन सर्वथा ऐसा नहीं होता है। कई बार देखा गया कि पिता, माता से अधिक संवेदनशील और कोमल हृदय होते हैं। जो उन्हें कठोर हृदय बदलाने वाले को झूठा साबित करते हैं। मिथिला के राजा सिरध्वज जनक ने राजा दशरथ से कहकर कई दिनों तक सीता और उनके बहनों की विदाई रुकवा दिए थे, क्योंकि उनका कोमल हृदय पुत्री वियोग सहन नहीं कर पा रहा था। राजा दशरथ जब अपने पुत्रों को शिक्षा प्राप्त करने के लिए गुरु वशिष्ठ के आश्रम में भेज रहे थे, तो उनकी रानियां उन्हें कठोर हृदय बतला रही थी। वही राजा दशरथ पुत्र राम को वन नहीं भेज पा रहे थे जबकि माता कैकई शेरनी की भांति इसका मांग कर रही थी। पर वह तो विमाता थी। स्वमाता कौशल्या को भी राम को वन जाने का आज्ञा देनी पड़ी थी। माता सुमित्रा ने कठोर शब्दों में पुत्र लक्ष्मण को वन जाने का आदेश दिया था। परंतु पिता दशरथ पुत्र के वन जाने के पश्चात तब तक जीवित थे, जब तक उन्हें पुत्र के वन से लौट आने की आशा थी। जैसे ही मंत्री सुमंत के खाली हाथ लौटने की सूचना मिली, उन्होंने पुत्र वियोग में अपने प्राण त्याग दिए। माताएं लंबे समय तक जीवित रही। पिता रावण पुत्र मेघनाथ को कई बार युद्धभूमि में जाने की अनुमति नहीं दे पा रहे थे, और स्वयं जाने के लिए तैयार थे। यह उनका पुत्र प्रेम ही था। पर राजा धृतराष्ट्र ने तो हद ही कर दिया। अपने पुत्र प्रेम के कारण कभी भी सही निर्णय नहीं ले पाए। अपने अंधे पुत्र प्रेम के कारण सही रास्ता नहीं दिखा पाए और 18 अक्षौहिणी सेना का विनाश करा दिए। उनका पुत्र प्रेम ही उनके पुत्रों का काल बन गया। सूर्यदेव अपने पुत्र प्रेम के कारण कर्ण के सामने आकर ब्राह्मण वेषधारी इंद्र को कवच कुंडल दान करने से मना कर दिए।तो इंद्रदेव अपने पुत्र अर्जुन के प्रेम के कारण कर्ण से कवच और कुंडल दान ले लिए।
    इतिहास में बहुत से उदाहरण मिल जाएंगे जहां एक पिता का पुत्र प्रेम एक माता से कहीं अधिक प्रभावी हो गया है। माता-पिता होते ही है अपनी संतान पर अपना सर्वस्व न्योछावर करने के लिए। कहा जाता है कि हुमायूं ने अपने पुत्र अकबर के ठीक होने के लिए मन्नतें मांगी, अकबर तो ठीक हो गए, पर हुमायूं बीमार पड़े और मर गए। आजकल पिता अपनी संतान की रक्षा के लिए अपने अंगदान तक कर देते हैं।
    माता-पिता में से किसी के प्रेम को भी कम या अधिक नहीं आंका जा सकता है। वे परिस्थितियां होती है जो उनसे ऐसा कराती है। एक पिता अखरोट की तरह ऊपर से कठोर और भीतर से मुलायम होते हैं, तो माता जामुन की तरह ऊपर से मुलायम भीतर से कठोर होती है। माता-पिता को छुहारे की तरह मीठा परंतु कठोर बनना पड़ता है। यदि वे ऐसा नहीं करें तो शायद संतान मार्ग भटक जाए और जीवन में वह मुकाम नहीं हासिल कर पाए जो उन्हें करना चाहिए था। पिता अपनी संतान के लिए एक गुरु, शिक्षक, चिकित्सक, मालिक और सेवक सब कुछ होते हैं। वे हर सम - विषम परिस्थितियों में रहकर अपनी संतान को सही मार्ग दिखाते हुए पालन- पोषण करते हैं, और तब तक जीवित रहते हैं उनकी संतान उनके लिए बालक की भांति होते हैं। सत्य ही कहा गया है - "पितृ देवो भव।"

    द्वारा:-
    मुकेश कुमार दुबे"दुर्लभ"
    ( शिक्षक सह साहित्यकार)
    सिवान, बिहार
    सम्प्रति, 
    सहायक शिक्षक
    राजकीय कृत उत्क्रमित मध्य विद्यालय बढ़ेया सिवान सदर जिला सिवान बिहार
    पत्राचार पता:-
    ग्राम पोस्ट पंजवार प्रखंड रघुनाथपुर जिला सिवान बिहार पिन कोड 84 1509
    इ मेल आईडी:-- mukeshdubey1228@gmail.com

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