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    सनातन संस्कृति के दो महत्वपूर्ण प्रतीक - शिखा एवं यज्ञोपवीत

    सनातन संस्कृति के दो महत्वपूर्ण प्रतीक _शिखा एवं यज्ञोपवीत _
    सनातन संस्कृति के दो महत्वपूर्ण प्रतीक माने जाते हैं, एक यज्ञोपवीत और दूसरी शिखा।
    वास्तव में सनातन संस्कृति के हर छोटे _बड़े प्रतीक या हर छोटी _बड़ी बातें अत्यन्त महत्वपूर्ण और उपयोगी हैं, इन्हे वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी परखा जा चुका है। सनातनी पद्धति में 16 संस्कार माने जाते हैं उनमें से यज्ञोपवीत संस्कार अति महत्वूर्ण माना गया है। इस संस्कार में किशोर अवस्था प्रारंभ होते ही ब्रतबंध कराया जाता है ,इसमें कंधे में जनेऊ धारण करवाकर जीवन के महत्वपूर्ण दायित्व पूर्ण करने का व्रत दिलवाया जाता है। सनातन संस्कृति में धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष ये 04 पुरुषार्थ माने जाते हैं, इन्हीं को प्राप्त करने हेतु ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, सन्यास आश्रम की व्यवस्था बनाई गई है, इसी के अधार पर जीवन को सुचारू रूप से संचालन करने का व्रत धारण करवाया जाता है, इसी को यज्ञोपवीत संस्कार कहा जाता है।
    शिखा का महत्त्व भी जनेऊ जैसा ही है । सनातन संस्कृति का छोटे से छोटा सिध्दांत,छोटी-से-छोटी बात भी अपनी जगह पूर्ण और कल्याणकारी हैं। छोटी सी शिखा अर्थात् चोटी एवं जनेऊ अर्थात यज्ञोपवीत भी कल्याण, विकास का साधन बनकर अपनी पूर्णता व आवश्यकता को दर्शाते हैं। शिखा और जनेऊ का परित्याग करना मानो अपने कल्याण का परित्याग करना हैं। रहीम ने छोटे के महत्व को समझाते हुए कहा है कि __

    रहिमन देख बडे़न को,
    लघु न दीजिए डार।
    जहां काम आवे सुई,
    कहा करे तरवार।।

         वास्तव छोटी बातें भी समय और परिस्थिति के अनुसार अति महत्वपूर्ण होती हैं।

    शिखा और जनेऊ न रखने से हम जिस लाभ से वंचित रह जाते हैं, उसकी पूर्ति अन्य किसी साधन से नहीं हो सकती।

    आर्ष ग्रंथों में एक कथा आती है कि, हैहय व तालजंघ वंश के राजाओं ने शक, यवन, काम्बोज पारद आदि राजाओं को साथ लेकर राजा बाहू का राज्य छीन लिया। राजा बाहु अपनी पत्नी के साथ वन में चले गये,वहाँ राजा की मृत्यु हो गयी। महर्षि और्व ने उनकी गर्भवती पत्नी की रक्षा की और उसे अपने आश्रम में ले आये। वहाँ उसने एक पुत्र को जन्म दिया, जो आगे चलकर राजा सगर के नाम से प्रसिद्ध हुआ। राजा सगर ने महर्षि और्व से शस्त्र और शास्त्र विद्या सीखीं। समय पाकर राजा सगर ने हैहयों को मार डाला और फिर शक, यवन, काम्बोज, पारद, आदि राजाओं को भी मारने का निश्चय किया, ये शक, यवन आदि राजा महर्षि वसिष्ठ की शरण में चले गये। महर्षि वसिष्ठ ने उन्हें कुछ शर्तों पर अभयदान दे दिया,और सगर को आज्ञा दी कि वे उनको न मारे। राजा सगर अपनी प्रतिज्ञा भी नहीं छोड़ सकते थे और महर्षि वसिष्ठ जी की आज्ञा भी नहीं टाल सकते थे। अत: उन्होंने उन राजाओं का सिर शिखा सहित मुँडवाकर उनकों छोड़ दिया। 

    प्राचीन काल में किसी की शिखा काट देना मृत्युदण्ड के समान माना जाता था, इसी तरह जनेऊ का भी महत्व था, कहते हैं औरंगजेब ने लाखों सनातन संस्कृति के अवलंबियो को जनेऊ के कारण मौत के घाट उतारा था।बङे दुख की बात हैं कि आज सनातनी लोग अपने हाथों से अपनी शिखा काट रहे है, और जनेऊ धारण करने को पुरातन पंथी कहते हैं, यह गुलामी की मानसिकता है। 
        
    शिखा और जनेऊ हिन्दुत्व की पहचान हैं। ये हमारे धर्म और संस्कृति के रक्षक हैं। शिखा और जनेऊ के विशेष महत्व के कारण ही हिन्दुओं ने यवन शासन के दौरान अपनी शिखा और जनेऊ की रक्षा के लिए सिर कटवा दिये पर शिखा नहीं कटवायी और न जनेऊ ही उतारा।


    "वास्तव में मानव-शरीर को प्रकृति ने इतना सबल बनाया हैं कि वह बड़े से बड़े आघात को भी सहन कर जाता है,परन्तु शरीर में कुछ ऐसे भी स्थान हैं जिन पर आघात होने से मनुष्य की तत्काल मृत्यु हो सकती हैं। इन्हें मर्म-स्थान कहा जाता हैं। 

    शिखा के अधोभाग में भी मर्म-स्थान होता हैं, मस्तक के भीतर ऊपर जहाँ बालों का आवर्त(भँवर) होता हैं, वहाँ संपूर्ण नाङियों व संधियों का मेल होता है उसे 'अधिपतिमर्म' कहा जाता हैं।यहाँ चोट लगने से तत्काल मृत्यु हो सकती है। शिखा इस स्थान का सुरक्षा कवच है। इसके अलावा यह शारीर का गुरुत्वाकर्षण केंद्र माना जाता है, जहां से हमारे दिल, दिमाग, मन, मस्तिष्क में अच्छे विचार और देवीय अनुदान, वरदान आकर्षित होते रहते हैं।


    शिखा रखने व जनेऊ धारण करने के और भी बहुत से लाभ बताये गये हैं, उनमें कुछ निम्नवत हैं __

    01_ शिखा और जनेऊ के नियमों का यथावत् पालन करने से सद्‌बुद्धि , सद्‌विचारादि की प्राप्ति होती हैं।

    02_ आत्मशक्ति प्रबल बनती हैं।

    03_ मनुष्य धार्मिक , सात्विक व संयमी बना रहता हैं।

    04_ लौकिक जीवन में भौतिक सुख तथा परलोक में सदगति प्राप्त होती है। 

     05__सभी देव शक्तियों से सुरक्षा कवच प्राप्त होता है। 

    06_ मानव जीवन स्वस्थ, बलिष्ठ, तेजस्वी और दीर्घायु होता है।

    07_ आंख, कान, नाक आदि सभी ज्ञानेंद्रियों, कर्मेंद्रियों की गुणवत्ता सुरक्षित रहती हैं।

    08_शरीर स्वस्थ, मन स्वच्छ, भावनाएं पवित्र और कर्म उत्कृष्ठ रहते हैं।

    09_जीवन में जिम्मेवारी, बहादुरी, ईमानदारी और समझदारी बढ़ती है।

    10_धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष चारों पुरुषार्थों की प्राप्ति होती है।

    इस प्रकार धार्मिक, सांस्कृतिक, वैज्ञानिक सभी दृष्टिकोणों से शिखा और जनेऊ की महत्ता स्पष्ट होती है,परंतु आज हिन्दू लोग पाश्चात्य विकृति मानसिकता के चक्कर में पड़कर शिखा और जनेऊ नहीं रखते व अपने ही हाथों अपनी संस्कृति को नष्ट कर रहे हैं। 

    जबकि होना यह चाहिए कि लोग हँसी उड़ाएं, पागल कहें , पुरातन पंथी कहें तो भी बिना उनकी परवाह किए अपने धर्म का त्याग नहीं करना चाहिए। मनुष्य मात्र का कल्याण चाहने वाली अपनी हिन्दू संस्कृति नष्ट हो रही हैं, इसे बचाने का हर सम्भव प्रयास करना चाहिए।

    डा शिव शरण श्रीवास्तव अमल

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