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    भावी पीढ़ी में मानवीय मूल्यों की स्थापना


    "रंग बिरंगे फूल की खुशबू, मेरे चमन में कुछ कम तो नहीं । 
    चंद्रशेखर आजाद, भगतसिंह, मेरे वतन में कुछ कम तो नहीं।"

    वास्तव में कितना सत्य है उक्त पंक्तियों में | देशभक्ति जैसी परम भावना उच्च आदर्श व संस्कारों के बीजारोपण से ही पल्लवित होती है। बच्चों के व्यक्तित्व विकास व चरित्र निर्माण में माता-पिता की धनिष्ठता, प्रगाढ़ प्रेम, परस्पर विश्वास का सर्वाधिक प्रभाव पड़ता है क्योंकि परिवार बालक की प्रथम पाठशाला होती है। दिव्य संस्कारों का प्रस्फुटन बच्चों में प्रेमपूर्ण भावनाओं से होता है। छत्रपति शिवाजी को राष्ट्र भक्त और स्वतंत्रता प्रेमी बनाने का श्रेय उनकी माता जीजाबाई को ही है। एक घड़ा मिट्टी और पानी से निर्मित होता है । मिट्टी जिस प्रकार की होगी, घड़ा भी उसी प्रकार को बनेगा | इससे भी अधिक महत्वपूर्ण है जिसका उपयोग कर घड़ा बनाया जाता है। त्रुटिपूर्ण तकनीक के उपयोग से घड़ा भी कच्चा बन जाता है । इसी प्रकार मनुष्य के व्यक्तित्व विकास के आधार को तैयार करने वाला तत्व है उसकी निष्ठा और उसके संस्कार । प्राचीन काल में उतने साधन नही थे जितने आज हैं, सुविधाओं का अंबार है परन्तु वर्तमान साधनों के विकास से मनुष्य की चेतना प्रभावित नहीं होती | भावनाओं और संवेदनाओं में न्यूनता आई है। 
    वर्तमान परिवेश पर यदि दृष्टिपात करें तो आज बच्चों पर इतना अधिक मानसिक तनाव एवं दबाव है कि वे उसे सहन तक नहीं कर पा रहे और असमय ही मृत्यु का वरण कर लेते है । यह विडंबना है कि देश का अमूल्य मानव संसाधन असमय ही काल के गाल में समा रहा है। संस्कारों की धरोहर सदैव बुजुर्ग पीढ़ी द्वारा युवा पीढ़ी को हस्तांतरित की जाती है। परंतु आजकल संयुक्त परिवार प्रथा का विघटन होने से, दादा-दादी, ताऊ- ताई द्वारा हिस्से कहानी कविताएँ सुनना, धार्मिक ग्रन्थों का श्रवण, बालकों के सर्वांगीण विकास पर ध्यान देना, शिक्षा में नैतिक व आध्यात्मिक मूल्यों के अनुप्रयोगात्मक पक्ष पर बल आदि विलुप्त होता जा रहा है। भावी पीढ़ी से यंत्रवत अपेक्षाएँ की जा रही हैं ।

     "शिक्षा समझो वही सफल, 
    जो कर दे आचार विमल ।" 

    अपनी सुखद स्मृतियों से यह बात सामने, आती है कि विद्यार्थी जीवन में पारिवारिक संस्कारों के कारण एवं माता-पिता द्वारा समय दिये जाने के कारण व्यक्तित्व विकास हेतु चंपक, नंदन, अच्छे भैया, कॉमिक्स, अनूदित पुस्तकें, पंचतंत्र की कहानियाँ आदि पढ़ने के प्रति रुझान रहा। साहित्य से संवेदनाओं का विकास होता है। अन्यथा हिंसक प्रवृत्तियां बढ़ती है। बाल्यकाल में पढ़ी पंच परमेश्वर, हार की जीत, काबुलीवाला, ईदगाह बूढ़ी काकी आदि कहानियां ऐसी धरोहर है जिसमे दिए संस्कारों और शिक्षा को यदि जीवन में रोपित कर लिया जाए तो आत्म विकास का मार्ग प्रशस्त किया जा सकता है। शिक्षा प्रणाली के व्यावहारिक स्वरूप में भी है "किताबी रटाई" को महत्व दिया जाता है। मात्र 3 घण्टे में हल लिए गए प्रश्नपत्र के आधार पर किसी की भी सर्वागीण दक्षता का पता नहीं लगाया जा सकता है । विज्ञान और तकनीकी के युग में पुस्तकों का विशाल संसार इंटरनेट पर उपलब्ध है । परन्तु मात्र कुछ ज्ञान पिपासु ही उनका लाभ लेते हैं। आज भावी पीढ़ी में संस्कारों और मानवीय गुणों के रोपण हेतु निम्नांकित बिन्दु उपयोगी हो सकते हैं:
    * मानवीय गुणों से परिपूर्ण साहित्य सृजन, ताकि युवाओं में स्फूर्ति व संस्कार आ सके। 
    *शिक्षा व्यवस्था को नैतिक व आध्यात्मिक मूल्यों से जोड़कर जीवन में अनुप्रयोग पर बल देना होगा ।
    *संयुक्त परिवार प्रथा की और उन्मुख होना । 
    *माता-पिता द्वारा अपनी व्यस्त दिनचर्या में से गुणवता पूर्ण समय अपने बच्चों के साथ बिताना ।
    *स्वाध्याय की भावना का विकास कर समय के सदुपयोग पर ध्यान केंद्रित करना ।
    * विद्यालयों में आयोजित साहित्यिक, सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भावी पीढ़ी को अधिकाधिक सहभागिता कराना।
    * मनोवैज्ञानिक निर्देशन व परामर्श प्रदान करना ताकि समस्यायों का हल निकालने में दक्ष हो सके।
    *इंटरनेट पर अश्लील साइट्स पर कानून बनाकर रोक लगानी होगी।
    * फूहड़ चैनलों को देखकर दिवास्वप्न में अपनी सकारात्मक ऊर्जा को बर्बाद न करें। * रात्रि को परिवारों में कहानी कथन की परंपरा पुनः आरंभ की जानी चाहिए | प्रेरणास्पद प्रसंग चरित्र निर्माण में सहायक सिद्ध होंगे।
    *स्वाध्याय की भावना का विकास कर समय के सदुपयोग पर ध्यान केंद्रित करना । 
    *बच्चों के जन्मदिवस पर पौधरोपण करवाकर, प्रकृति के प्रति प्रेम तथा वृद्धाश्रमों, नेत्रहीन एवं मूक- बधिर, दिव्यांगजनों के साथ मनाकर संस्कारों को
    अक्षुण्ण रखा जा सकता है। 
    * परिवारों में विभिन्न उत्सव त्योहारों के आयोजन से संबंधित कथा श्रवण एवं मिलजुलकर मनाने से इसका मनोवैज्ञानिक और भावनात्मक प्रभाव असाधारण होता है। 
    * शिक्षा का उद्देश्य नौकरी ही न हो वरन् सर्वागीण विकास हो ।
    *शिक्षकों के द्वारा बच्चों के समक्ष आदर्श छवि प्रस्तुत की जानी चाहिए। *अभिभावकों और अध्यापकों का सहयोग एक दूसरे के प्रयासों में अधिक उत्कृष्टता की भूमिका भली भाँति निभा सकता है । 
    * आत्म उन्नति और आत्म परिष्कार हेतु विद्यार्थियों में डायरी लेखन विद्या का विकास करना होगा ।
    निष्कर्षतः हम कह सकते कि शिक्षा द्वारा ही बच्चों को संस्कारित किया जा सकता संस्कार हमारी धरोहर हैं। भावी पीढ़ी प्रसिद्ध महानुभावो की जीवनी से प्रेरणा लेकर जीवन में आत्मसात करें। प्रतिभा पलायन की प्रवृत्ति से बचें और अपने देश के उत्थान में योगदान दें । आज भावी पीढ़ी को अपनी कल्पना के रंगों को भर कर भारत का सुंदर इन्द्रधनुष निर्मित करना है । आइये हम अपने साहित्य, संस्कृति के माध्यम से नवभारत का नव निर्माण कर अखिल विश्व को अपने तेज से प्रकाशित कर दें । कविवर मैथिलीशरण गुप्त जी की लेखनी के उद्गार, 
    " मनुज जीवन है अनमोल, साधना है वह एक महान ।
    सभी निज संस्कृति के अनुकूल, एक हों रचे राष्ट्र उत्थान ।
    इसलिए नहीं कि करें सशक्त निर्बलों को अपने में लीन,
    इसलिए कि हो राष्ट्र हित हेतु समुन्नति पथ पर सब स्वाधीन ।"

    । इति॥ 
    यह मेरा मौलिक स्वरचित आलेख है।

    © लेखिका
    डॉ. दीप्ति गौड़ 
    शिक्षाविद एवं साहित्यकार,
    ग्वालियर, मध्यप्रदेश
    (वर्ल्ड रिकॉर्ड पार्टिसिपेंट)
    सर्वांगीण दक्षता हेतु राष्ट्रपति भवन नई दिल्ली की ओर से भारत के भूतपूर्व राष्ट्रपति महामहिम स्व. डॉ. शंकर दयाल शर्मा स्मृति स्वर्ण पदक, विशिष्ट प्रतिभा सम्पन्न शिक्षक के रूप में राज्यपाल अवार्ड से सम्मानित।


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