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    ग़ज़ल

    ग़ज़ल

    वो अदब और वो समझ वो सोच वो जज्बा नहीं
    हो गया शहरी करण वो गांव वो कस्बा नहीं।

    खेलते थे हम जहां वो घर का आंगन खो गया
    बचपने की हरकतें वो बचपना मिलता नहीं।

    गैर भी अपने थे जब वो दिन सुहाने कितने थे
    अब तो बस हम खुद ही खुद हैं कोई भी अपना नहीं।

    अपनी अपनी उलझनों में त्रस्त हैं हम सब के सब
    इसलिए मंजर कोई भी दिल को खुश करता नहीं।

    टीवी,सीडी,वीडियो में हम सभी गुम हो गए
    जलवा अब मेले तमाशों में कहीं दिखता नहीं।,,,,,   
                                       
                                         -गोपी साजन

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