चलते-चलते,
पैरों में छाले पड़ गए।
जिम्मेदारी की धूप...,
ऐसे बरसी;
कि, घर की छप्पर तक जल गई।
वक्त ने रुकने ही नहीं दिया,
बहारों के आने पर,
जो, ठहरा कुछ पल,
तो, बहारें बदल गई।
काँटे, पैने चुभते रहे,
पैरों के तले छिल गये,
सिसकियाँ तक न निकली,
ज़िंदगी, आहिस्ता-आहिस्ता निकल गई।
जीवन, दिशाहीन भागा,
बदलती हवाओं की रफ़्तार से,
चलने की कोशिशें चलती रही,
लेकिन हवाएँ, फिर बदल गई।
घड़ी के कांटे,
वक्त, बराबर बताते रहे,
लेकिन, वक्त जब बदला,
तो, घड़ी ही बदल गई।
दिन निकला,
और शाम ढले, ढल भी गया,
वक्त ने इतना चलाया,
कि, चलते-चलते ज़िंदगी तक ढल गई...।
अनिल कुमार केसरी