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    कबीर की प्रासंगिकता

    कबीर की प्रासंगिकता :    
    कबीर जी को लोक प्रियता प्राप्त हुई हे उसका कारण यह हे की,उनके काव्यो मे सच्चाई अनुभूति और अभिव्यक्ति के खरे पर हे। इन्हे जो अच्छा लगा उसका खुलकर समर्थन किया,और इन्हे जो बुरा लगा उसका निर्भीकता से सख्त विरोध किया। जिस के कारण आज भी कबीर जी लोक प्रिय हे,उनका नाम सभी के जिह्वा पर हे,इनकी सखिया भी लोगो के होठो पर हे।आज भारत मे कबीरजी के मंदिर भी देखने को मिलते हे,लोग भजन भी कबीर जी के ग रहे हे,कबीर पंथ चल रहा हे,लोग उस पंथ मे जुड़ता हे।

    कबीर जी भक्ति kaल के प्रमुखरहस्य वादी कवि रहे हे।कबीर अनपढ़  कवि रहे हे,लोग उनकी साखिया जब वे गुण गुनाए तब लिख लेते थे।उन्होने कहा हे कि,

    “ मसी कागज गहयो नही ,कलाम छुआ नहीं हाथ ,

    आपस मे दौऊ लड़ी-लड़ी,मुए मरन न कोऊ जाना “

    सीख धर्म पर इंका प्रभाव स्पषष्ट देखने को मिलता हे,कबीर जी का पालन पोषण एक मुस्लिम जुलाहा  परिवार मे हुआ था पर उन्होने अपना गुरु रमानन्द जी को माना था। इनके जन्म के बारे मे विद्वानो मे मतभेद हे,किन्तु उनका जन्म काशी मे ही हुआ था ईएसए माना जाता हे। इस बात की पुष्टि कबीर जी के इस कथन से ही होती हे। 

    “ काशी मे परगट भये,रमानन्द चेताए ,

    हिन्दू कहे मोही राम पियारा ,तुर्क कहे रहमान “

    आपस मे दौऊ लड़ी-लड़ी मुए ,मरन न कोई जाना “

    कबीर इस साखी से बताना चाहते हे की,काशी मे वे  प्रकट हुए हे और इनके गुरु रमानन्द चेताते हे की हिन्दू को राम प्यारे हे और तुर्की लो गो को यानि की मुस्लिम लोगो को रहमान प्यारे हे ,दौनो आपस मे लड़ी लड़ी मरी रहया छे परंतु मृत्यु विशे कोई कशु जनते नहीं हे.

     दोष पराए देखि ,करी चला चला हसुनत ,

    अपने याद न आए जिन को आदि न अंत “

     आज के संदर्भ मे कबीर जी के  इस दोहे बहुत ही प्रासंगिक हे,इस दोहे  के माध्यम से कबीर जी बताते हे की,इंसान ऑरो के दोष हमेशा देखता हे 

    किन्तु अपने दोष कभी देखता नहीं हे।आधुनिक जगत मे ये प्रासंगिक हे,राज नैतिक जगत को ये सटीक बैठता हे।जब कोई नेता विरोध दल की बुराइया करे तो सामनेवाला आरोप का का उत्तर न देकर आरोप लगनेवाले को ही कटघरे मे खड़ा कर देता हे। स्वस्थ आलोचना का कोई स्वीकार नहीं करता,जब की स्वस्थ आल्प्च्न का बहुत ही लाभ होता हे।

    “ निदक नियरे रखिए ,आँगन कुटी छवाय ,

    बिन साबुन पानि बिना निर्मल कर रुलाय “

     अमर्यादित आरोप लगते रहते हे,प्रत्यारोप लगते रहते हे,अमर्यादित भाषा का उपयोग करते हे,अभद्र शब्द प्रयोग करते हे,किन्तु कबीर कहते हे,की वाणी मे कटुता नहीं होनी चाहिए।मृदु वाणी मे बोलने से व्यक्ति खुद शांत रहता हे,सुनने वाला भी शांत हो जाता हे,

      कबीर जी कहते हे की,

    “एसी बोली बोले,मन का आपा खोय 

    ओरन  को सितल करे ,आप ही सीतल होय “

    व्यर्थ बाटो मे बहस करके इंसान आज समय बर्बाद कर रहा हे। 




    सभी लोगो को मुख्य बातो पर ही ध्यान देना चाहिए ।यह बात कबीर जी ने बहुत ही सुंदर रीत से समझाई हे।

    “ साधू ईएसए चाहिए ,जैसा सूप सुलाये 

    सर सर को गही रहे थोथा देय उड़ाय “

      आज कबीर जी के ये दोहे बहुत प्रासंगिक हे

    “बोली एक  अनमोल हे,जो कोई बोले जानी,

    हिये तराजू बोलिके ,तब मुख बाहर आना “

      इंसान को बोलने से पहले अपने मुख से निकलनेवाली वाणी को तराजू मे तोलना चाहिए।याने की सोच समझकर अपनी वाणी बोल्न चाहिए।आई नेता हो या अभिनेता हो,बिना समझे ही बयानबाजी करते रहते हे। वे अपनी सच्चाई देते रहते हे,बात को संदर्भ से अलग करके टोडमोद के पेश किया जाता हे।वक्तव्य का मतलब किसी की भावना ओको ठेस पाहुचना नहीं हे।कबीर जी कहते हे की,

    “ जाती न पूछो साधू की ,पूछे लिखित ज्ञान 

    मोल करो तरवार का ,पड़ा रहने दो म्यान “



    कबीर जी ने जाती प्रथा को नहीं स्वीकार करते थे,इनहो ने इस दोहे के माध्यम से बताया हे की, साधू और गुनीं लोगों की कभी जाती न पूछना चाहिए,उनके केवल गुण देखने चाहिए। आज जातिवाद का जहर समाज मे फ़ेल गया हे,इसके कारण देश का विकाश रुकता हे,देश की अखंडितता टूटती हे।आरक्षण के नाम पर लोग दंगे फसाद कर रहे हे।देश मे अशांति पैदा कर रहे हे।

    कबीर जी ने जीवन का संतुलन समझाया हे,कबीर जी कहते हे की,अति कभी किसी भी चीज सही नहीं हे।

    “अति कभी न बोल्न ,अति की कभी न चुप ,

    अति का भला न बरसाना ,अति की कभी न धूप “

      कबीर जी इस दोहे के माध्यम से समझाते हे की, ज्यादा बोल्न नहीं चाहिए,ज्यादा चुप भी न रहना चाहिए,किसी का ज्यादा भला भी न करना न चाहिए। अति मतलब ज्यादा धूप भी अच्छी नहीं हे। किसिका छोटा बड़ा होना महत्व पूर्णा नहीं हे,कबीर जी एक समाज सुधारक थे।उस समय अपनी सखियो के माध्यम से जो शिक्षा दी हे ,यदि देखा जाय तो यह आज के जमाने मे भी सही बैठती हे।उस समय अज्ञानता ,जाती प्रथा, धार्मिक भेदभाव क्रोध ,हिंसा आदि बुराइया समाज मे फैली हु थी। 

    कबीर जी कर्म कांड के विरोधी रहे हे,वे एक ही ईश्वर मे मानते थे। अवतार ,रोज़ा,देह ,मस्जिद,मंदिर आदि को वे नहीं मानते थे।कबीर के समय मे हिन्दू जनता पर धर्मांतरण का दबाव था। उनहो ने लोगो को सहज भाषा मे समझाया हे की,ईश्वर एक हे,इनहो ने ज्ञान से ज्यादा महत्व प्रेम को दिया हे।

    “ पोथी पढ़ी पढ़ी जग  मुआ ,पंडित भया न कोई,

    ढाई आखर प्रेम का ,पढे सो पंडित होय “

    कबीर जी ने हिन्दू और इस्लाम दौनों धर्मो का खोखलापन को बताया हे,मूर्ति पुजा को निरर्थक बताया हे।वे कहते हे की,

    मूर्ति पुजा से तो अच्छी चक्की हे, कुछ कम तो आता हे,

    मुल्ला की बांग का भी वो उप हास करते थे। आज इस लिए इनके ये दोहे प्रासंगिक हो गए हे।क्योकि आज धर्मो मे दिखावा और आडंबर बढ़ता जा रहा हे। एक दूसरे को नीचा दिखने की होड सी लगी हे।

    कबीर जी कहते हे,

    “ पाहन पूजे हरी मिले,तो मे पुजौ पहार,

    बाते तो चाकी चली ,पीसी खाय संसार “

    कांकर पाथर जोड़ के,मस्जिद भी बनाए 

    ता चढ़ मुल्ला बांग दे क्या बहरा हुआ खुदाय “


    कबीर जी का जीवन शांति प्रिय था,और वे अहिंसा सत्य सदाचार आदि गुणो के भंडार थे।वे दूसरे के दोष देखने के बजाय अपने दोष देखने की बात कहते हे।



    कबीर एक महान कवि थे ,मृत्यु के बाद भी भक्तो संदेश मे कबीर ने संदेश दिया हे। अपना पूरा जीवन लोगो की भलाई के लिए समर्पित कर दिया ,मृत्यु के बाद हिन्दू मुस्लिम धर्म मे व्याप्त कुरीतिया को खत्म करने का प्रयास किया हे। इनहो ने अपने जीवन काल मे हिन्दू और मुस्लिम को एकता मे पिरोने काम किया हे। 

     उनकी भक्ति मे सामान्य ग्रहस्थों  के लिए भी स्थान हे। कबीर की आध्यात्मिक चेतना या उनकी भक्ति समाज से जुड़ी हुई हे। कबीर की कविता शोषित जनता के साथ खड़ी दिखती हे। उनका स्वर बनती हे। शोषक सामंत वर्ग का जोरदार विरोध करती हे।उनकी कविताए आज भी प्रासंगिक हे।

    कबीर की भाषा मे सरलता एवं सादगी हे। उनमे नूतन 

    प्रकाश देने की अद्भुत शक्ति हे।उनका साहित्यमे  मन जीवन को उन्नत बनाने का बल हे, उनका साहित्य संत साहित्य का परम तत्व हे। संत कबीर की कविता समाज की बुराइयों को झाड़ू से बुहारनेका काम करती हे। अंत मे देखा जाय तो कबीर जी और उनका साहित्य आज भी प्रांसंगिक हे ।

      गुजरात के भरु च जिले मे नर्मदा नदी के तट पर 15 वी सदी  का एक रहस्यवादी वृक्ष कबीर से जुड़ा हुआ हे,वह एक कबीर मंदिर भी हे।ये 

    वृक्ष को आजादी के बाद 1950 मे बरगद के पेड़ को राष्ट्रिय वृक्ष का दरज्जा दिया गया हे।इसका धार्मिक महत्व हे,ज़्यादातर पंचायते इसी पेड़ की छाया मे बुलाई जाती हे।बहुत ही घटादार हे ये।एक बार देखने लायक हे। एक एसी मानिता हे की कबीर जब गुजरात मे नर्मदा  नदी के किनारे गए थे 



    तब सुबह मे उठकर उन्होने बरगद की लकड़ी का दातुन किया था और उस लकड़ी को वह जमीन मे खड़ा गाड़ दिया था,उसके बाद वह पेड़ निकाल आया और फैलता गया हे। इस लिए उस बरगद के पेड़ की धार्मिक आस्था भी जुड़ी हुई हे।बरगद के पेड़ के मूल और पत्ते दवाई के कम आते हे।जड़ी बुट्टी के तौर पर इसका इस्तेमाल किया जाता हे।भारत वर्ष मे दूसरा बड़ा बरगद का पेड़ पश्चिम बंगल के शिवपुर मे बोतनिकल गार्डन मे पाया जाता हे।

    भारतीय वर्णव्यवस्था जाती पति भेदभाव ,उंच नीच भेद भाव और छु अछूत सामाजिक धार्मिक पाखंड ,पुनर्जन्म अवतहरण ,कर्म फल के आधार पर कबीर के सामाजिक द्रष्टि कोण की प्रासंगिकता ,वर्तमान और  मान्यताओ को वर्तमान के मूल्यो और जीवन दर्शन के आदर्शो को ध्यान मे रखकर देखना आवश्यक हे।



    डॉ गुलाब चंद पटेल
    कवि लेखक अनुवादक 

    अध्यक्ष महात्मा गांधी साहित्य सेवा संस्थान 

    गांधीनगर,गुजरात -382016

    मो 88497 94377

    ईमेल : dr. gulab 1953@gmail.com

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