मां का मन

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मातृदिवस पर सभी माताओं को समर्पित
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                मां का मन
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कितना सुंदर कितना प्यारा
कितना कोमल कितना नाजुक
होता है मां का मन।
झांक झांक कर देखती लाल को
जिसने दुत्कार भगाया था।
हाथों से गिलास गिर जाने पर
शेरों सा गुर्राया था।
घायल, लाचार,निरीह हिरणी सी
मां दूर खड़ी आंसु बहाती थी।
अपने बुढ़ापे के कारण
ठीक से चल भी न पाती थी।
पर लाल को छींक भी न आए
इसका ध्यान वह रखती थी।
बेटे के पसंद की सारी चीजें
बनाने को सदा आतुर रहती थी।
पर आधुनिक पढ़ी लिखी बहु
डांट कर उसे भगाती थी।
डांट खाकर चुप रह जाती मां
धीरे धीरे कुछ दूर चली जाती थी।
अगले ही पल फिर संभलते हुए
नए व्यंजन की विधि बताती थी।
कितने कष्टों से पाला था लाल को
शीत,ताप, वर्षा,हर कष्ट सहकर
गीले वस्त्रों में खुद रहती थी।
जाग जागकर आंखों में ही
सारा रात काटती थी।
मां का मन नहीं देता दोष कभी
अपने दंभी, निर्दयी लाल को।
इतने पर भी बालक ही है मेरा लाल
कहता है यह मां का मन।
अपने हिस्से की मिठाई
और दूध बचाकर रखती थी।
जब भी आता लाल घर पर
सबसे छिपाकर खिलाती थी।
वही लाल आज मां के कांपते हाथों को
सहारा भी नहीं दे पाता है।
जिन हाथों ने उंगली पकड़कर
चलना उसे सिखाया था।
वही मां आज बुढ़ापे में
लगती लाल को भार है।
कैसे छुटकारा मिले इस मां से
इसे सोच सोच कर परेशान हैं।
इस परेशानी का भी हल
मां के पास है।
बिन खाएं सो जाएंगी
राम नाम, राधे कृष्ण जपते जपते
काशी, मथुरा, अयोध्या चली जाएगी।
पर, हे प्रभु, मेरे लाल को
सदा बलाओं से दूर रखना।
उसके हिस्से के ग़म मुझको
मेरे सुख उसको देना।
सागर से भी गहरा होता है
प्यारा सुंदर मां का मन।
कोमल नाजुक सुंदर सुंदर
प्यारा प्यारा है मां का मन।
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मुकेश कुमार दुबे "दुर्लभ "
( शिक्षक सह साहित्यकार)
सिवान, बिहार

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