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    नशा मुक्ति - लेखक डॉ शिव शरण"अमल"

    "नशा मुक्ति"


    सुन्दर तन, मन, बुद्धि मिली थी,
    पर हमने यह क्या कर डाला।
    दुर्व्यसनो की लत में पड़कर,
    पीते रोज जहर का प्याला।।

    तन भी जर्जर, मन भी दूषित,
    भाव सभी कुंठित हो जाते।
    चीत्कार कर रही आत्मा,
    फिर भी लत से बाज न आते।।
    युद्ध, महामारी, अकाल ने,
    जितना कष्ट नहीं पहुंचाया।
    उससे ज्यादा सिर्फ नशे ने,
    दुनिया में आतंक मचाया।।
    नहीं बचा है कोई कोना।
    सारा विश्व हुआ मतवाला।
    दुरब्यसनो की लत मे पड़कर,
    पीते रोज जहर का प्याला।।
    कितने सत्कर्मों के फल से,
    यह मानव का जीवन पाया।
    प्रभु के राजकुंवर बनने का,
    कैसा सुन्दर अवसर आया।।
    ईश्वर है यदि शान्ति सिंधु तो,
    हम फिर शान्ति_पुत्र कहलाए।
    सुख का उदधि कहे उसको तो,
     हम सब सुख के सुवन सुहाए।।
    मानव की गौरव गरिमा को,
    हमने तहस_नहस कर डाला।
    दुरब्यसनो की लत मे पड़कर,
    पीते रोज जहर का प्याला।।

    सत्य, शील, करुणा का सागर,
    मान प्रभू को सब भजते हैं।
    पर क्यो अपने उर अंतस मे,
    ये गुण_तत्व नहीं दिखते हैं।।
    जन्म_जन्म की यात्राओं से,
    कुछ तो कालिख जम जाती है।
    सत्य_न्याय के अंगारो मे,
    परत राख की चढ़ जाती है।।
    कालिख लगी हुई चादर को,
    और अधिक मैली कर डाला।
    दुर्व्यसनो की लत मे पड़कर,
    पीते रोज जहर का प्याला।।

    मटन, चिकन, बिरयानी को,
    हमने भोजन का भाग बनाया।
    पेट हो गया है मुर्दाघर,
    कितनी लाशों को दफनाया।।
    हम जीवों के रक्षक थे पर,
    आज स्वयं भक्षक बन बैठे।
    कितनो को हलाल कर डाला, कितनों की गर्दन हैं ऐठे।।
    आए थे हम क्या_क्या करने?
    लेकिन क्या से क्या कर डाला ?
    दुरब्यसनो की लत मे पड़कर,
    पीते रोज जहर का प्याला।।

    किया कलेजा छलनी हमने,
    बीड़ी, सिगरेट, गांजा पीकर।
    मुख को किया विषाक्त गुड़ाखू,
    गुटका, तंबाखू खा_खाकर।।
    भांग, धतूरा, ठर्रा, व्हिस्की,
    हड़िया,ताड़ी,बियर, न क्या क्या ?
    दुराचरण, दुर्भाव, दुष्टता,
    विषय, वासना, क्रोध, इर्ष्या।।
    नशा चढ़ा जब दिल_दिमाग मे,
    सुबह_शाम दिखती मधुशाला।।
    दुरब्यसनो की लत मे पड़कर,
    पीते रोज जहर का प्याला।।

    देशी और विदेशी मदिरा,
    की,बोतल हम लगे चढ़ाने।
    कोकिन,ब्राउन_शुगर, हिरोइन,
    चरस, अफीम लगे महकाने।।
    मधुर तान की जगह हमेशा,
    हमने कर्कश वाणी बोली।
    पावन दृष्टि मिली थी हमको,
    पर हमने मादकता घोली।।
    खुद की बरबादी का खुद ही,
    जाने कैसा मार्ग निकाला।
    दुरब्यसनो की लत मे पड़कर,
    पीते रोज जहर का प्याला।।

    भोगवाद को सफल मानकर,
    उसमे ही हम फूल गए हैं।
    सादा जीवन_उच्च विचारों,
    की परिभाषा भूल गए हैं।।
    पीड़ा, पतन, पराभव की यह,
    बीमारी फैली है जब से।
    है इतिहास साक्षी अपना,
    यह दुर्दशा हुई है तब से।।
    आओ वृत्ति बदलकर देखें,
    फैला चारों ओर उजाला।।
    दुरब्यसनो की लत मे पड़कर,
    पीते रोज जहर का प्याला।।

    डॉ शिव शरण"अमल"

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