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    मजदूर हूं मैं

    "मजदूर दिवस' 01 मई 2023 पर स्वरचित, मौलिक व अप्रकाशित रचना
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                मजदूर हूं मैं
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    मजदूर हूं मैं
    न समझो मजबूर मुझे
    बदलते भारत की तकदीर हूं मैं
    मजदूर हूं मैं।

    मुझसे ही उपवन की शोभा
    नाली गली देख जी हरसाता
    सड़क, विद्यालय, मंदिर, मस्जिद,
    मेहनत करके मैं ही बनाता।
    नगरों के बदलते परिवेश की
    असली धूरी कील हूं मैं।
    मजदूर हूं मैं।

    खेत - खलिहान, हाट - बाजार में
    गांव - गांव की डगर - डगर में
    सबके तन, वपन, वसन, भोजन में
    पोषण का आधार हूं मैं।
    मजदूर हूं मैं।

    कल कारखाने, ईट्ट भट्ठियों  में
    अपने तन को पल-पल गलाकर
    बच्चों को थोड़ा खिलाकर
    खुद भूखे पेट भी रहकर
    सबकी अनहद जरूरतें पूरी करता।
    बूंद बूंद रक्त स्वेद बहाकर
    सबके चेहरे पर लाता मुस्कान हूं मैं।
    मजदूर हूं मैं।

    स्वर्णिम चतुर्भुज सड़कें और संसद भवन बनाता
    काशी विश्वनाथ मंदिर, महाकालेश्वर मंदिर या राम मंदिर बनाता
    स्टैचू ऑफ इक्वालिटी या स्टैचू ऑफ यूनिटी,
    या फिर नए मस्जिद, गिरजाघर बनाता।
    अपनी मेहनतो से मैं
    तेरा ही चेहरा निखारता।
    मजदूर हूं मैं।

    हमसे वतन की शान है
    हमसे वतन की पहचान है
    क्षण - क्षण हो रहे विकास के कण-कण
    हमारे ही रक्त स्वेद से है सिंचित
    मजदूर के कर्मों से ही जग में
    हो रहा देश का नित नव नाम है।
    ना समझो लाचार बेबस मुझे।
    अपना सब कुछ अर्पित कर तुझ पर
    अभी तक दो रोटी का मोहताज हूं मैं।
    मजदूर हूं मैं।
    ना समझो मजबूर मुझे
    बदलते भारत की तकदीर हूं मैं।
    मजदूर हूं मैं।
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    मुकेश कुमार दुबे "दुर्लभ'
    ( शिक्षक सह साहित्यकार)
    सिवान, बिहार
    मोबाइल नंबर 9576 5350 97

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