मालूम

मालूम
सीढ़ियों को पता होता है
कि एड़ियों में कितनी दरारें है
चलने का अंदाज़ बयाँ जिसका
उसकी बेमिसाल जिंदगी है

                                   शराफत में जीने के लिए
                                   हर मंज़िल आसाँ नहीं है
                                    पत्थरों से ठोकर लगने से ही
                                     किसकी की याद आती है
                                      मगर ये खुद नहीं होता है

धुंधले हुए उजालों में चेहरे अनेक होते है
किस- किसपर पलटवार ये ज़मीर करें
ये ख़ुद जिंदगानी सवाल नहीं कर पाती
जो तिनके- तिनके जोड़कर झोपड़ी कभी नहीं रहीं
यही दुनिया की सवाल है
आँखों में बेईमानी के जाल है
मुर्गा देखो कहीं हलाल है
जो लोग ठोकरें खाते रहते हैं
चलते हैं कभी गिरते हैं
मगर निशाँ हो जाते हैं, पैरों के आहत की वजह से...

- मनोज कुमार
  गोंडा उत्तर प्रदेश
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