मदारीवाला

तकरीबन दिन का दूसरा पहर गुजरने ही वाला था, मैं जेठ की तपती दोपहरिया में श्रीनगर की शीतलता का आनंद लेने के लिए अपने अस्त्र -शस्त्र का परित्याग कर हैण्ड पम्प की गोद में लेटने के लिए बढ़ा, आज मेरे मन में एक अलग प्रकार की खुशी थी। चार दावों में तीन दांव जो जीतकर आए थे, खेल के सभी साथी मेरा ही शुक्र कर रहे थे।
मैं उस कुरुक्षेत्र की धरती पर अकेला अर्जुन था जिसके साथी पाण्डव विपक्षी कौरव से परास्त हो चुके थे ,और आज उनके सभी बाण विफल जा रहे थे।

मेरे मन में आज के महाभारत के चलचित्र चल ही रहे थे कि अचानक बाँसुरी और डमरू की सम्मिलित ध्वनि मुझे सुनाई दी। मेरे अन्तर्दृष्टि ने यह तो अवश्य समझ लिया था कि महादेव साहू की पकड़िया के घनी छांव तले अक्सर होने वाले तमाशे में ऐसी ध्वनि सुनने को मिलती है।मैने ज्यों ही सामने की सड़क पर पलकें झपकायी कि बड़ी संख्या में बच्चे और बूढ़े- "मदारीवाला आया, मदारीवाला आया"-कहते हुए तालियां बजाते हुए दौड़ते चले जा रहे थे।
उनका जोश चुनावी जलसे में आए मंत्री जी के आगमन से कम नहीं था। मैंने झट से हैण्ड पम्प से अपना नेकर उठाया और पहनते हुए चल दिया। हलाँकि नेकर की साइज़ के चलते मैं दौड़ने में तो असमर्थ था परन्तु अपनी छोटी-मोटी टाँगों के भरोसे मैं उस भीड़ को चीरते हुए पहली सफ में जाकर बैठ गया।

तमाशा शुरू हो चुका था। "बच्चों सबसे पहले शोर के साथ बजाओ ताली,फिर दिखायेंगी अपना डैंस मुन्नी रानी पटना वाली"-मदारी ने डमरू के ताल के साथ गला फाड़ते हुए कहा।
सभी ने एक स्वर में होउ..ओ... कहते हुए तालियां बजायी, परन्तु मुन्नी के इस शो की फीस इतनी तालियों तक पर्याप्त नहीं थी ।और वो ज्यों की त्यों मंच पर चित्त पड़ी रही। 
'एक कलाकार का हौंसला दर्शक के उत्साह पर निर्भर करता है' ,मेरा बाल मनोविज्ञान इस बात को समझ चुका‌ था।
"एक बार फिर से हल्लाबोल ताली बजाओ बच्चों"-मदारी ने पुनः डमरू बजाते हुए कहा।और तालियों की गूंज के साथ वो चादर पर पड़ी औरत, जिसके जिस्म में कपड़े के शिवाय और कोई अवयव नही था, कब हेमा मालिनी हो गई इसका किसी को आभास तक नहीं हुआ।
बाँसुरी और डमरू के तालमेल में मुन्नी रानी ने इतना आकर्षित कर लिया कि रुपए,दो‌ रुपए और पाँच रुपए के सिक्के मदारी की चादर पर बरसने लगे और उसकी खनखनाहट के साथ मुन्नी के पैरों की चाल बढ़ती गई।

"अब शुरू होगा असली खेल बताओ बहनों और भाइयों क्या देखना चाहोगे आप लोग ,इस लड़के का गला काटकर फिर से जोड़ दें, इसे साँप बना दें,या फिर इसकी लाश सात फिट ऊपर उठा दें "-मदारी अपने लौड़े के कंधे पर हाँथ रखते हुए बोला। सभी लोग अपनी -अपनी शौक़ का तमाशा बताने लगे। किसी को साँप देखना था तो किसी को लाश और कुछ ऐसे भी थे जो गला कटवाना चाहते थे।और वे अपनी ख्वाहिशें ऐसे बता रहे थे जैसे कि वर्षों की तपस्या के बाद भगवान शंकर से कोई वरदान माँग रहे हों । खैर इन‌ सब के नीचे मेरी ख्वाहिशें बेअसर थी ।ये सारे खेल मेरे लिए ख़तरनाक थे । गला काटना,साँप और लाश सोचकर ही मेरा मन घबराने लगा, परन्तु मदारी ने खेल शुरू होने के पहले ही ऐलान कर दिया था -" जिसे भी जाना हो अभी जा सकता है,खेल के बीच में जायेगा तो मेरा बेटा मर जाएगा या हमेशा के लिए साँप हो जायेगा।" अतः मैं यह पाप नहीं कर सकता था और चुपचाप बैठकर उस लड़के को साँप बिच्छू और कबूतर बनते देखता रहा। जब वह साँप बनकर चादर से बाहर निकलकर फुफकारने लगा तो सभी बच्चे डरकर पीछे भागने लगे। मैं भी उन्हीं के साथ पीछे भागा।

खेल समाप्त हो चुका था और मदारी साँप को गले में डालकर चावल , गेंहू और दाल आदि लाने को कह रहा था । और चारों तरफ चक्कर लगाते हुए लोगों के हाथों से रुपए इकट्ठा कर रहा था। जब सभी लोग वापस आने लगे तो मैं भी उनके साथ उसी हैण्ड पम्प पर लौट आया। जहां मेरी शर्ट मेरा इंतजार कर रही थी । मेरा सारा उत्साह डर में बदल चुका था।


         -अनुराग मिश्र'अनुभव'
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