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    कान्हा कि पगली - मीराबाई

    ​श्री कृष्ण गोविन्द हरे मुरारी, भोर सांय जो गाया करती गीत।। थी पगली वह दुनिया से बेगानी, लगाई जिसने श्याम संग प्रीत।। राठौड़ रत्न नामक प्राणी ने, संतान रूप में कन्या इक पाई।। प्राप्त जिसे उपाधि परम भक्त कि, प्रसिद्ध नाम था मीराबाई।। मात्र आठ वर्ष की आयु में, कृष्ण मुरारी उसको थे भाए।। प्रेम से तन मन धन कर उन्हें समर्पित, बनी वह जोगन रटन लगाएं।। बालपन में घटित हुआ व्याख्या, गुजरी मार्ग से एक बारात।। उठा प्रश्न मीरा मां से बोली, कौन थामेगा मेरा हाथ ?सरलतापूर्वक उत्तर दे माई बोली, दे कान्हा की मूरत को इशारा।। वर प्राप्त मेरी बिटिया को होगा, मुरलीधर कृष्ण कन्हाई प्यारा।। समक्ष जा कृष्ण कन्हाई के, पहनाई मीरा पुष्पों का हार।। जोड़ ह्रदय का तार प्रभु से, मीरा करने लगी भक्ति संचार।। नित्य कर समर्पित प्रेम पुष्प वह,मीरा प्यारे कान्हा को सजाती।। गाती थी प्रेम गीत वह ऐसा, मुरली कान्हा कि आप बज जाती।। ईधर मुरली कि तानों में, गवा सुध-बुध मीराबाई नाचे।। दुजी ओर गीत मीराबाई के, कृष्ण कन्हाई को अति साजे।। मुरलीधर संग मीराबाई का, आत्मा से हो गया गठबंधन।। कि मीराबाई जो किशोरावस्था में प्रवेश, उत्पन्न हो गई भारी अर्चन।। विवाह हुआ जो मीराबाई का, कहलाया कदापि नहीं वह पूरा।। केवल लिपटी वहां परत ऊपरी, था प्रेम रंगों बिन अधुरा।। राणा सांगा नमक वह प्राणी, मीराबाई संग जो विवाह रचाया था।। सुन अदृश्य व अद्भुत प्रेम कथा मीरा की, माथा उसका चकराया था।। मान कृष्ण को स्वयं के समक्ष, मीरा हरदम मुस्काती थी ।। बैठा मन मंदिर में कान्हा को, अपना हाल बताती थी।। राणा सांगा किये प्रयत्न अनेकों, परंतु हुए सभी बेकार।। समीप ना मीरा के हो पाएं, तत्पश्चात मान गए वह हार।। आ गया फिर उन्हें समझ, मीराबाई महिला नहीं साधारण।। कृष्ण भक्ति में डूबी मीरा का, जमकर होने लगा प्रसारण।। सांगा ऐसे मनुष्य जिन्होंने, मीरा की भक्ति को पहचान लिया।। चलती अंतिम सांसों तक उसने, संपूर्ण मान ह्रदय से दिया।। मुगलों संग चल रहे युद्ध में, सांगा वीरगति को प्राप्त हुए।। पति की मृत्यु के पश्चात, अनेकों दुख मीरा ने सहे।। पश्चात सांगा के छोटा भ्राता, राजा चित्तौड़गढ़ का कहलाया।। मीरा का जीवन नर्क बनाने हेतु, आडंबर भिन्न रूपों में रचाया।। मृत्यु मीरा को दिलाने हेतु, बनी योजनाएं जनों कि साथ ।। परंतु मीरा की भक्ति ऐसी, चुन-चुन कर मिल गई सभी को मात।। कभी रखा सर्प टोकरी के भीतर, कभी प्याला विश का पीलाया।। हो गया परिवर्तित पुष्पों में सर्प, प्याला विश का अमृत बनाया।। बर्दाश्त की भी हद हो गई, चित्तौड़गढ़ मीरा ने छोड़ दिया ।। भटकते मिला जो नहीं संतोष, मुख वृंदावन को मोड़ लिया।। कर प्रवेश वृंदावन में मीरा, स्वयं को ललिता मान चुकी थी।। ललिता नामक उस गोपी ने, डोर कृष्ण से बांध रखी थी।। जुड़कर अन्य संतो संग उसने, भक्ति मार्ग को सरल बनाया।। कहे! अहो भाग्य मेरे जो, गुरु संत कबीर दास को पाया।। बनकर कवी मीराबाई ने , लिखी श्रेष्ठ काव्य रचनाएं।। प्रसिद्धि 'भक्ति के तपोवन की शकुंतला ', भक्ति तथ्य जिसमें थे समाए।। कहे बिन गुरु जो ज्ञानी बन जाए, प्राणीमें ऐसी शक्ति है कहां।। कठिन मार्ग जो सहज बनाएं, उपाधि गुरु की मिले वहां।। जीवनकाल में कर भक्ति तुम्हारी,। मृत्यु पश्चात गले लगाना है।। त्याग तन एक दिन मेरी रूह ने, कन्हैया संग सम्मिलित हो जाना है।। अंतिम क्षणों में गई द्वारका, भज रही थी कृष्णा कृष्णा।। कृष्ण समक्ष लगा समाधि उसने, बुझाली युगो युगो की तृष्णा।। प्रेम कान्हा की पगली का, समस्त ब्रह्मांड में अमर हो गया।। सौंप तन कृष्ण के चरणों में, मन मीरा का प्रसन्न हो गया।। समस्त द्वारका को कह अलविदा , समा कृष्ण में गई मीराबाई ।। पुकार लगाई अन्य प्राणीयों ने , किंतु लौट वापस न आई।। आत्मा संग परमात्मा के मिलन की, पूर्ण हुई मीरा कि आस।। मीरा की प्रेम कहानी का, अमर संपूर्ण जगत में इतिहास।। श्री कृष्ण की अर्धांगिनी रूप में, मीरा को भी माना जाता है।। हिंदू धर्म में कृष्ण की परम उपासक, मीराबाई को जाना जाता है।।

    Sangeeta Tiwari 

    1 टिप्पणियाँ

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