फर्श से अर्श तक

"सिसकियाँ दम भर रही थी,
और रातें भी मुकम्मल ना हो रही थी!
फिर हुआ कुछ ऐसा कि दीदार एक हुआ,
मैंने जिसे समझा था नाकाबिल वह कमाल का हुआ"।।
जब इन अंतिम शब्दों के साथ मैंने अपने शब्दों को विराम दिया तो तालियों की गड़गड़ाहट से पूरा कमरा गूँज उठा। उन आवाजों ने मेरी तंत्रों को वर्तमान में वापस लाकर खड़ा कर दिया जैसे कि, मैंने नहीं मेरी अंतरात्मा ने उन शब्दों को कौंधाया हो। बड़ी विचित्र सी स्थिति में थी मैं। आप सोच रहे होंगे कि आखिर बात किसकी हो रही है तो आपको बता दूँ कि - 'मैं नारी हूँ'! जिसका रोम-रोम सदैव यही आवाज देता है कि कभी तो कोई ऐसा ज़िंदगी में कदम रखा जाए की उसमें चार चाँद लग जाएँ। बस ऐसा ही कुछ मेरे साथ भी हुआ था। ख्वाबों को हकीकत के पर लग गए थे। विश्वास तो मुझे भी ना था, परंतु जब उसने सफेद साड़ी में लिपटी एक जिंदा लाश को साँसें दे दीं, तो अचानक ही जैसे फर्श से अर्श का सफर तय करने में मुझे ज्यादा वक्त ना लगा। कहाँ खो गई हो जाओ? मंच पर तुम्हारा नाम गुंजित हो रहा है। वह मेरी अनवरत मुस्कान का बेसब्री से इंतजार कर रहा था और मैं अनायास ही मुस्कुरा दी, अकारण, बिन वजह!

Gyaneshwari Vyas (Smirti)
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