धर्म और राजनीति

आधुनिक युग में विद्वानों का मत है कि धर्म और राजनीति एक-दूसरे के विरोधी है। 
इसलिए भारत को धर्म निरपेक्ष राष्ट्र घोषित किया गना है। अंग्रेजों की 
धर्म-नीति और राजनीति एक-दूसरे से मिली हुई थी इसलिए वहाँ की प्रगति हुई, 
परन्तु भारत में धर्म और राजनीति एक दूसरे के विरोधी रहे, इसलिए यहाँ के लोग 
प्रगति की दौड़ में पीछे रह गये।

धर्म का अर्थ धारयति सः अर्थात् जो धारण करता है, वही धर्म है। प्रकृति रूप 
में आत्मा जिस आचरण को धारण करती है, नही धर्म है। अतः प्रेम, उदारता, करुणा, 
कर्तव्यपरायणता, ईमानदारी आदि सभी धर्म के ही अंग हैं। इसके विपरीत लालच, 
स्वार्थ आदि सभी अधर्म के अन्तर्गत है।

धर्म का स्वरूप आज यहाँ मन्दिर, गिरजाघर आदि में ईश्वर की पूजा, उपासना, रोजा 
आदि क्रिया-कमों को धर्म माना जाता है। सात्मिक प्रवृत्तियों को धर्म और 
तामसिक प्रवृत्तियों को अधर्म माना गया। धर्म के विविध स्वरूप हमारे सामने आते 
हैं जैसे हिन्दू धर्म, मुस्लिम धर्म, ईसाई धर्म, जैन धर्म आदि।

राजनीति, धर्म और नीति-राजनीति भी मानव को ऐसी नीति पर चलना सिखाती है, जिससे 
मानव अधिकाधिक सुख व समृद्धि का जीवन व्यतीत कर सके। जब धर्म मानव को 
आत्म-शुद्धि करके चिन्तन-सुख और आनन्द की और से जाता है, तब राजनीति मानसिक 
शान्ति भौतिक सुख-समृद्धि देने की योजना बनाती है। राजनीति राज्य की सृष्टि 
करती है, जो राज्य के जनों के लिए शान्ति व्यवस्था की स्थापना करता है तथा 
उन्हें अर्थोपार्जन के अवसर प्रदान करता है। आत्मशुद्धि के लिए जिस साधना की 
आवश्यकता है, उसकी मनःस्थिति समाज में शान्ति-व्यवस्था व आर्थिक समृद्धि पर 
आधारित है। जिस समाज में अराजकता, अनाचार, उत्पीड़न व अशान्ति का साम्राज्य हो, 
उसमें आत्म-साक्षात्कार के लिए साधना की मनःस्थिति बन ही नहीं सकती। इस प्रकार 
राजनीति धार्मिक वातावरण की प्रस्थापना में महत्त्वपूर्ण अंग है। दूसरी ओर 
धार्मिक वृत्ति के जन जो प्रेम, उदारता, सहिष्णुता, ईमानदारी व कर्तव्य 
परायणता की भावना से परिपूर्ण होते हैं, वे ही जन- जन के लिए सुख-शान्ति का 
मार्ग प्रशस्त करने वाली राजनीति चला सकते हैं। अधार्मिक जन तो अन्याय, अनीति 
व अनाचार की राजनीति की पालना में जीने के लिए विवश करते हैं।

धर्म और राजनीति- आज के राजनेता यह घोषणा करते हैं कि धर्म को राजनीति से अलग 
रखना चाहिए। सम्राट अशोक ने भी धर्म का आश्रय लेकर प्रेम, उदारता, करुणा व 
सहिष्णुता का सन्देश दिया था। छत्रपति शिवाजी ने भी धर्म का आश्रय लेकर 
हिन्दू-मुसलमानों में एकता का बीजरोपण किया था। इतिहास इस बात का प्रमाण है कि 
किसी हिन्दू राजा ने धर्म के नाम पर युद्ध नहीं किया, बल्कि अन्याय- अत्याचार 
के विरुद्ध उसने संघर्ष किया है। औरंगजेब की इस्लामी धर्मान्धता के कारण ही 
मुगल साम्राज्य का पतन हुआ।

उपसंहार- उपर्युक्त विवेचना से स्पष्ट है कि धर्म के तात्त्विक परिवेश को ही 
देखना चाहिए और उसका अनुसरण करना चाहिए। साम्प्रदायिकता एक अपने अनुया करती 
है। जो व्यक्ति धर्म के वास्तविक स्वरूप को अपनाना है,

Awadesh Tiwari 
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