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    स्वतंत्रता: सीमाविहीन या सीमाबद्ध


    स्वतंत्रता: सीमाविहीन या सीमाबद्ध

    कहीं उड़ने दो परिंदे कहीं उगने दो दरख़्त
    हर जगह एक सा बाज़ार न होने पाए।

    निदा फाज़ली की यह पंक्तियाँ प्रगति और स्वतंत्रता के मध्य सुंदर समन्वय को 
    अभिव्यक्त करती हैं। अगर देखा जाए तो स्वतंत्रता एक आत्मनिष्ठ विषय वस्तु है 
    जिसकी परिभाषा में एक प्राणी के अनुसार विभिन्नताएँ पाई जाती हैं। दार्शनिक 
    रूसो के अनुसार आम सहमति का अर्थ ही स्वतंत्रता है। वहीं अमर्त्य सेन के 
    अनुसार विकास लोगों को मिलने वाली स्वतंत्रता का विस्तार मात्र है।

    मोटे तौर पर देखने पर स्वतंत्रता का आशय प्राणी की आजादी से लगाया जाता है।   
    मनुष्य के लिये स्वतंत्रता कितना महत्त्व रखती है यह इतिहास के पन्नो में 
    बखूबी बयाँ है। विश्व इतिहास को खोलने पर स्पष्ट होता है कि स्वतंत्रता 
    प्राप्ति के क्रम में विश्व के कई देशों को इसकी बड़ी कीमत चुकानी पड़ी है। 
    फिर चाहे बात अमेरिका की हो, अफ्रीकी देशों की या भारत की, सबके स्वतंत्रता 
    संघर्ष का इतिहास बहुत लंबा रहा है। भारत के परिप्रेक्ष्य से देखा जाए तो 
    स्वतंत्रता प्राप्ति हेतु देश के लाखों लोगों, जिसमें भगत सिंह, सुखदेव, 
    राजगुरु जैसे कई युवा शामिल थे, ने अपने प्राणों की आहुति दी।

    इस बात का प्रमाण पहले से मौजूद है कि हमारे स्वतंत्रता सेनानियों को 
    स्वतंत्रता प्राणों से भी अधिक प्रिय थी। भारतीय स्वतंत्रता के इतिहास में 
    महात्मा गांधी, तिलक, पटेल, मंगल पांडे, खुदीराम बोस, मौलाना अब्दुल कलाम 
    आज़ाद, चंद्र आज़ाद आदि लोगों के नाम सुनहरे अक्षरों में दर्ज हैं जिन्होंने 
    अपने देश हित को अपने स्वार्थ के ऊपर वरीयता दी। वहीं रानी लक्ष्मीबाई, वेलु 
    नचियार, कित्तूर रानी चेन्नम्मा, अरुणा आसफ अली, सावित्रीबाई फुले और सरोजिनी 
    नायडू जैसी स्त्रियों का आत्मोसर्ग आज भी युवतियों के लिये प्रेरणास्वरुप  है।स्वतंत्रता के महत्त्व को देखते हुए इस बात का अंदाजा लगाया जा सकता है कि 
    स्वतंत्रता की आवश्यकता जितनी मनुष्यों को होती है उतनी ही पशु पक्षियों एवं 
    अन्य प्राणियों को भी होती है। पिंज़रे में बंद पंछी जब दूर आसमान में उड़ते 
    हुए पंछी को देखता है तब उसे स्वतंत्रता का मूल्य समझ में आता है। स्वतंत्रता 
    का मोल एक गुलाम प्राणी से बेहतर कोई नहीं जान सकता। इस संदर्भ में शिवमंगल 
    सिंह सुमन की प्रसिद्ध पंक्तियाँ याद आती हैं-

    हम पंछी उन्‍मुक्‍त गगन के पिंजरबद्ध न गा पाएँगे,
    कनक-तीलियों से टकराकर पुलकित पंख टूट जाऍंगे।
    हम बहता जल पीने वाले मर जाएँगे भूखे-प्‍यासे,
    कहीं भली है कटुक निबोरी कनक-कटोरी की मैदा से।

    स्वतंत्रता का महत्त्व न केवल मनुष्य और पशु पक्षियों के लिये है बल्कि इसका 
    सुंदर उदाहरण हम पेड़-पौधों के संदर्भ में भी देख सकते हैं। जब पौधों की 
    प्रजातियों को भरपूर स्वतंत्रता दी जाती है तो उससे विशाल वन और अनगिनत 
    प्रजातियों की उत्पत्ति होती है किंतु उसी स्वतंत्रता को बाधित करके जब उसे 
    अपने आँगन के गमले में ले आते हैं तो तो उसका विस्तार बाधित हो जाता है और वह 
    सिर्फ आँगन की शोभा बन कर रह जाता है। कहने का तात्पर्य यह है कि स्वतंत्रता 
    की महत्ता अनगिनत है और वह प्रत्येक प्राणी के सर्वोत्तम विकास के लिये आवश्यक 
    है।

    अगर स्वतंत्रता की आवश्यकता पर बात की जाए तो स्वतंत्रता ही वह साधन है जिसके 
    द्वारा नए विचार, रचनात्मक कला, नित नए उत्पादन, जीवन की गुणवत्ता और विकास के 
    सर्वोत्तम रास्तों का विकास होता है। वर्तमान समय में कई राष्ट्र मेहनत से 
    प्राप्त इस स्वतंत्रता की ही बदौलत प्रगति के अपने सर्वोच्च शिखर पर विद्यमान 
    हैं। जब किसी कलाकार, अभिनेता या वैज्ञानिक को अपने विचारों को साकार रूप देने 
    की स्वतंत्रता प्राप्त होती है तो इतिहास का सृजन होता है।

    स्वतंत्रता के कई रूप हो सकते हैं यथा आर्थिक स्वतंत्रता, राजनीतिक 
    स्वतंत्रता, सामाजिक स्वतंत्रता आदि। स्वतंत्रता के यह सभी रूप न सिर्फ 
    व्यक्ति अपितु देश के सर्वांगीण विकास हेतु आवश्यक होते हैं। अगर एक स्त्री को 
    स्वतंत्रता मिलती है तो उसका रूपांतरण कल्पना चावला जैसी अंतरिक्ष वैज्ञानिक 
    के रूप में होता है और जापान जैसा लघु देश विशालतम सफलता को अर्जित करता है। 
    विदित है कि भारत विश्व का विशालतम प्रजातांत्रिक देश है एवं यहाँ प्रत्येक 
    नागरिक को आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक तथा सामाजिक स्वतंत्रता प्राप्त है जो 
    उसे संविधान द्वारा मौलिक अधिकारों के रूप में प्रदान किये गए हैं। लेकिन एक 
    व्यक्ति का अधिकार या उसकी स्वतंत्रता दूसरे व्यक्ति के अधिकारों या उसके 
    स्वतंत्रता में बाधक नहीं होना चाहिए। यह तभी संभव है जब स्वतंत्रता को 
    अनुशासन के दायरे से सीमित किया जाए, क्योंकि असीमित स्वतंत्रता भी अंततः जीवन 
    एवं सामाजिक व्यवस्था के सुचारू रूप से संचालन में बाधा पहुँचाती है।एक विद्यार्थी को नकल करने की छूट नहीं दी जा सकती राजनीतिक दलों को अनैतिक 
    विजय हेतु स्वतंत्रता नहीं प्रदान की जा सकती, गलत दवाओं के उपयोग को बढ़ावा 
    नहीं दिया जा सकता और अपराधी प्रवृत्ति के लोग असामाजिक गतिविधियों में 
    संलिप्तता हेतु स्वतंत्र नहीं हो सकते। इसके लिये राज्य द्वारा नियम और कानून 
    की व्यवस्था की जाती है ताकि कोई भी अधिकार सीमित ना रहे। संविधान में 
    अधिकारों के साथ-साथ ऐसे उपबंधों की भी व्यवस्था की गई है जो अधिकारों के 
    अतिक्रमण क्षेत्र पर पाबंदी लगाते हैं।
    “दूसरों के लिये अज़ार न हो पाए,
    आदमी इतना भी खुद्दार न हो पाए”।

    स्वतंत्रता की सीमाओं पर गौर करने पर हम पाते हैं कि विभिन्न वैज्ञानिक 
    अनुसंधान की प्रायोगिक प्रक्रिया के समय भी हर परीक्षण की नैतिक सीमाएँ तय की 
    जाती हैं ताकि वो अनुसंधान अंततः मानव जाति के विनाश का ही कारण न बन जाए। आज 
    परमाणु एवं जैविक हथियार इस तथ्य की पुष्टि करते हैं कि विज्ञान संबंधी 
    स्वतंत्रता की भी अपनी एक सीमा होनी चाहिए नहीं तो इस विकास की कीमत मानवता और 
    सृष्टि के विनाश से चुकानी पड़ेगी।

    इसी स्वतंत्रता को सीमित करने के लिये राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय 
    एवं कानूनों की स्थापना की गई है। विश्व युद्ध के भयावह परिणाम के मद्देनज़र 
    UNO की स्थापना की गई ताकि देश अपनी स्वतंत्रता की सीमा को पहचान सकें। 
    पर्यावरण संबंधी मनुष्य द्वारा किये गए आत्महंता प्रयासों को देखते हुए UNEP, 
    UNFCC जैसी संस्थाएँ और संध्या अस्तित्व में लाई गई। वैश्विक व्यापार असंतुलन 
    को दूर करने हेतु WTO जैसे अंतर्राष्ट्रीय संस्था की स्थापना की गई।

    इसे देखते हुए कहा जा सकता है कि “आज और कल की बात नहीं है सदियों का इतिहास 
    यही है, हर आँगन ख्वाब है लेकिन चंद घरों में ताबीरे हैं।”

    इस प्रकार हम कह सकते हैं कि स्वतंत्रता न सिर्फ व्यक्ति, समाज और देश के स्तर 
    पर महत्त्वपूर्ण हैं बल्कि व्यक्तिगत स्तर पर तथा मानसिक तौर पर भी उतना ही 
    आवश्यक है। हालाँकि कई बार यह पहलू अनछुआ रह जाता है या पर्दे के पीछे पड़ 
    जाता है क्योंकि लौकिक तौर पर शारीरिक स्वतंत्रता को तो हम देख पाते हैं लेकिन 
    कुछ मानसिक स्वतंत्रता संबंधी वस्तु स्थिति को नहीं पहचान पाते। मानसिक 
    स्वतंत्रता को शारीरिक स्वतंत्रता से ऊपर माना जा सकता है क्योंकि कई बार 
    इंसान दूर से स्वतंत्र नजर आता है लेकिन वह मानसिक रूप से परतंत्र होता है। 
    फिर चाहे वो कुरीतियों के रूप में जकड़ा हो, चाहे अंधविश्वास से या फिर गलत 
    सामाजिक रीति-रिवाजों से घिरा हुआ हो। यह परतंत्रता कहीं घातक होती है क्योंकि 
    इनका निवास मनुष्य का मस्तिष्क होता है जिसे किसी भी कानून द्वारा पढ़ा नहीं 
    जा सकता।

    आज आवश्यकता है कि व्यक्तिगत स्तर के अलावा उन वैश्विक रूप से विद्यमान 
    मानसिकता में भी परिवर्तन लाया जाए जो मानवता के उसके सर्वोच्च शिखर पर 
    पहुँचने में बाधक रहा है। आज वैश्वीकरण के इस दौर में प्राप्त स्वतंत्रता का 
    स्वरूप कहीं ना कहीं विकृत हो गया है। इसका उदाहरण हमें आतंकवाद, क्षेत्रवाद, 
    दुर्जय बीमारियों और संहारक युद्ध के रूप में देखने को मिलता है। वर्तमान समय 
    में इस स्थिति को दूर करने के लिये ऊपर से आरोपित अनुशासन की अपेक्षा 
    आत्मानुशासन युक्त स्वतंत्रता की आवश्यकता है। प्रधानमंत्री द्वारा 
    कोरोनावायरस के खतरे को देखते हुए इसी आत्म अनुशासन के मद्देनजर ‘जनता 
    कर्फ्यू’ की बात की गई ताकि हमारी असीमित स्वतंत्रता दूसरों के जीवन पर भारी न 
    पड़ जाए।

    विकास की इस अंधाधुंध दौड़ में दो पल ठहर कर पीछे जरूर देखना चाहिये, उस समय 
    भी कुछ लोग आज़ाद थे, कुछ गुलाम थे लेकिन आज जैसी गुलाम मानसिकता न थी। चाँद तक 
    पहुँचने की होड़ में अपने तो नीचे ही छूट गए-

    नदी मेरे अंदर से होकर गुजरती थी
    आकाश….!
    आंखों का धोखा नहीं था
    यह बात उन दिनों की है
    जब इस ज़मीन पर
    इबादत घरों की जरूरत नहीं थी
    मुझी में
    खुदा था………!

    आज़ादी का जश्न ऐसा हो जिसमें सभी आज़ाद हों और एक दूसरे को आज़ाद देखने की ललक 
    हो।

    सलोनी यादव

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