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    संघ प्रमुख का राजनैतिक भाषण

    जैसे गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर राष्ट्र के नाम राष्ट्रपति का संबोधन होता है और देश उसमें कही गई बातों को बड़े गौर से सुनता है। उसी तरह दशहरे के दिन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रमुख का राष्ट्रीय   संबोधन होता है। यह प्रथा शुरु से चली आई है, लेकिन अब इसे राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के भाषणों की तरह ही महत्व और प्रसारण का वक्त मिलता है।संघ एक हिंदू राष्ट्रवादी, सांस्कृतिक और स्वयंसेवी संगठन है, लेकिन संघ प्रमुख के विजयादशमी के राष्ट्रीय संबोधन में राजनैतिक महत्व की बातें मुख्यतः होती हैं। इस साल भी नागपुर में संघ मुख्यालय में अपने वार्षिक संबोधन में संघ प्रमुख मोहन भागवत ने महिला सशक्तीकरण,बेरोजगारी, दलितों पर अत्याचार और जनसंख्या नीति पर खासतौर सेअपने विचार व्यक्त किए। श्री भागवत का भाषण पहली नजर में सामाजिक सुधारों की ओर बढ़ते कदम जैसा लग सकता है, लेकिन इसका विश्लेषण किया जाए, तो यह दरअसल जाति, धर्म और पितृ सत्ता की हिमायत करता हुआ, छोटे-मोटे सुधार की वकालत करता है, ताकि बुराइयां नजर नहीं आएं और समाज की व्यवस्था जैसी चल रही है, वैसी ही चलती रहे। इस बार संघ ने दो बार एवरेस्ट फतह कर चुकीं पर्वतारोही संतोष यादव को अपने कार्यक्रम का मुख्य अतिथि बनाया। आम तौर पर संघ की छवि महिला विरोधी है और इसके कार्यक्रमों में महिलाओं को अधिक तवज्जो नहीं दी जाती है। लेकिन इस साल पहली बार संघ ने अपने वार्षिक कार्यक्रम में एक महिला को मुख्य अतिथि बनाकर लीक से हटकर चलने की कोशिश की है। माना जा रहा है कि महिला मतदाताओं को लुभाने और अपनी छवि को बदलने के लिए संघ ने यह कदम उठाया है।वैसे इस बारे में मोहन भागवत ने कहा है कि संघ के कार्यक्रम में महिलाओं की भागीदारी डा. हेडगेवार के वक्त से हो रही है। उन्होंने ये भी कहा कि वैसे भी हमें आधी आबादी को सम्मान और उचित भागीदारी तो देनी ही होगी। इस वाक्य से संघ की मजबूरी समझ आ जाती है। महिला सशक्तीकरण के बारे श्री भागवत ने कहा कि हमें महिलाओं के साथ समानता का  व्यवहार करने और उन्हें अपने निर्णय स्वयं लेने की स्वतंत्रता देकर सशक्त बनाने की आवश्यकता है। संघ प्रमुख इसकी जगह यह कहते कि हमें संविधान में दिए गए अधिकारों का सम्मान करना चाहिए,तब भी बात वही होती। क्योंकि संविधान महिला-पुरुष सबको बराबरी का हक देता है। पुरुष महिलाओं को फैसले लेने की आजादी दें, यह व्यवस्था उस समाज की बनाई हुई है, जो मनुस्मृति को संविधान मानता है। कट्टर हिंदुत्व के हिमायती धर्म की रक्षा के लिए महिलाओं से अधिक बच्चे पैदाकरने कहते हैं, तब क्या उनका अपमान और आजादी का हनन नहीं होता,संघ प्रमुख को इस पर भी अपने विचार व्यक्त करने चाहिए। वैसे मोहनभागवत ने बढ़ती जनसंख्या के बहाने फिर से जनसंख्या नीति की मांग की और धार्मिक आधार पर जनसंख्या संतुलन का जिक्र किया। ध्यान रहे कि संघ ने कई बार इस बात को प्रचारित किया है कि मुस्लिम आबादी हिंदुओं से अधिक तेजी से बढ़ती जा रही है। हालांकि सरकारी रिपोर्ट्स में ऐसे दावों का खंडन किया जा चुका है। देश में प्रजनन दर भी 2 प्रतिशत तक गिरी है। फिर भी यह मिथ्या प्रचार थम नहीं रहा है। एक ओर धार्मिक जनसंख्या का जिक्र श्री भागवत ने किया और दूसरी ओर कहा कि कथित अल्पसंख्यकों में यह डर पैदा किया जा रहा है कि उन्हें हमसे या संगठित हिंदुओं से खतरा है। श्री भागवत जरूर उन खबरों से अनभिज्ञ होंगे, जो बीते दिनों गुजरात और मध्यप्रदेश से आई हैं, जहां गरबा उत्सव में जाने के कारण मुस्लिमों को मारा-पीटा गया। उदयपुर और अमरावती की घटनाओं के बारे में श्री भागवत ने इसे खतरनाक प्रवृत्ति बताते हुए कहा कि अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों ने भी इसका विरोध किया है। लेकिन ये अपवाद न बन जाए,बल्कि अधिकांश मुस्लिम समाज का ये स्वभाव बनना चाहिए। संघ प्रमुख जिस स्वभाव की अपेक्षा मुस्लिम समाज से कर रहे हैं, वही हिंदू समाज से भी उन्हें करना चाहिए और अपने प्रभाव का लाभ उठाते हुए देश के नागरिकों से सहिष्णु स्वभाव अपनाने की अपील करना चाहिए।

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