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    शरदपूर्णिमा में महारास


            भगवान कृष्ण के महारास को समझने के लिए विवेक पूर्ण विवेचन की अत्यंत आवश्यकता है।

        "रास "शब्द संस्कृत के *रस* शब्द से उत्तपन्न हुआ है। जिसका शाब्दिक अर्थ है - निचोड़, तत्व-अर्क, आनन्द,

       काव्य में जो आनन्द आता है वह ही काव्य का रस है, काव्य में आने वाला आनन्द अर्थात् रस सामान्यतः लौकिक ही होता है,रस काव्य की आत्मा है। 
           रस के लौकिक आनंद के कारण इन्द्रियाँ अपना कार्य करती, और आनंदित होती हैं। 
         भक्ति का रस अलौकिक होता है,रस का अलौकिक रूप, आनंद रूप है और यही आनंद विशाल का, विराट का अनुभव भी है।  आदमी इन्द्रियों पर संयम करता है, तो विषयों से अपने आप हट जाता  है।  रस के रूप में जिसकी निष्पत्ति होती है, वह भाव ही है। जब रस बन जाता है, तो भाव नहीं रहता,केवल रस रहता है। 

           किसी भी फ़ल या सब्जी का निचोड़ रस होता है, भक्त की भक्ति का निचोड़ रस ही रास - आनन्द होता है।

         भगवान कृष्ण 16 कलाओं के अवतार थे, समस्त गोपियाँ पुराने जन्मों के ऋषि, मुनि ही थे ,जो कृष्ण को तत्व से जानना चाहते थे और कृष्ण की 16 कलाओं की खूबी में डूब जाना चाहते थे।  
           भगवान कृष्ण ने उनकी मनोकामना पूर्ति के लिए शरद पूर्णिमा का दिन चुना क्योंकि इस दिन रसाधिपति  चन्द्र देव भी 16 कलाओं में होते है , उसी की चाँदनी में पूर्ण 16 कलाओं का प्रकटीकरण करना था।

           चन्द्रोदय के साथ ही उन्होंने *क्लीं* बीज मंत्र का संपुट लगाकर बांसुरी से ध्वनियों की राग छेड़ी। क्लीं बीज मंत्र के द्वारा उन्होंने असुरों व आसुरी शक्ति से वृन्दावन को सुरक्षा चक्र के घेरे मे कर दिया। सभी गोपिकाओं के हृदय में और देवताओं तक अपना संदेश पहुंचा दिया।  जो कृष्ण भक्त नहीं थे वे सब गहरी नींद में सो गए। भगवान ब्रह्मा व शिव सहित सभी देवी ,देवता व ऋषि, मुनि गोपिकाओं के रूप में *महारास* अर्थात *परमानन्द* में डूबने *सत-चित-आनन्द* *श्रीकृष्ण* के समक्ष उपस्थित हुए।

    आत्मा को स्त्री व परमात्मा को पुरुष शास्त्रों में कहा गया है, श्रीकृष्ण पुरुष थे व समस्त देव, किन्नर व ऋषियो, मुनियों की आत्माएं स्त्री स्वरूप में गोपिकाएँ थी।

    उस दिन सबने श्रीकृष्ण को तत्व से जाना, उनकी 16 कलाओं में अवतार का रहस्य जाना, उनकी भक्ति ,गीत ,नृत्य में खो गए। श्रीकृष्ण के चरणों मे खोकर सब विदेहराज _जनक जैसे हो गए। किसी को स्वयं का भान न रहा, सबमें सर्वत्र कृष्ण ही कृष्ण थे। आत्मा का परमात्मा के मिलन का यह भक्ति पर्व महारास कहलाया।

    श्रीकृष्ण ने सभी को वरदान दिया कि जो भक्त शरद पूर्णिमा के दिन स्वयं को भूलकर मेरी भक्ति के रस में डूबकर चन्द्र को अपलक निहारेगा जैसा तुम मुझे आज अपलक निहार रहे हो, वो मेरा दर्शन आज के दिन चन्द्र में पायेगा। 

    भक्ति रहस्य को आधुनिक पाश्चात्य सोच से ग्रसित पतित जन कल्पना के अतिरिक्त कुछ नहीं मानते, क्योंकि उनकी सोच निम्न केंद्रों तक ही केंद्रित है ।
         *महारास* को *शरीर से परे आत्म स्तर पर भक्ति से परमानन्द* समझने में उन्हें कठिनाई होना स्वभाविक है, जिन्होंने कभी धर्मग्रन्थों का अध्ययन ही नहीं किया और न ही धर्म को तत्व से समझने की कोशिश की । वस्तुतः धर्म तत्व का विषय तर्क जन्य नहीं बल्कि बोध जन्य है।

    डा शिव शरण श्रीवास्तव "अमल"

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