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    न रख उम्मीद ए वफ़ा किसी परिंदे से, जब पंख निकल आते हैं अपना आशियाना भूल जाते है!

    आधुनिक समाज आज जिस मुकाम के तरफ तेजी से बढ़ रहा है वह पुरातन प्रभाव शाली संस्कृतियों के सम्बृध वाली ब्यवस्था का खुलेयाम निसंकोच चीरहरण कर रहा है!ज़िन्दगी के आखरी सफर में सुनसान विरान रास्ते पर बढ़ चलने वालों को जब अपनों की चाहत होती है तब आहत मन से दर्द के आंसू रोता अपने अतीत को याद कर माजी में खोता तन्हाईयो के समन्दर गोता लगाता बे सहारा बेचारा बना किनारा की उम्मीद में आहे भरते डरते डरते हम सफर के अभाव में खुद की बनाई चाहत की बस्ती से दर किनार कर दिया जाना ही नसीब बन जाता है? जीवन के उपवन में रोपित दरख़्त से आखरी वक्त में छांव के लिए भी तरस जाता है?कल जिस जगह अकड़ कर आत्म सम्मान स्वाभिमान सम्मान की बातें करता रहा अहंकार के आवरण में अपनों के लिए दिन रात सम्बद्धि का आवरण बनाता रहा, धन सम्पदा के लिए दिन रात तिजारत करते हुए, ब्यवस्त जीवन में सुख के क्षण चाहत के लिए तरस जाता!नातेदार रिश्तेदार के साथ भी ब्यवहार बदल जाता!जब तक ज़िन्दगी में चमक धमक कायम थी जमाना झुक झुक कर सलाम करता था! मगर कर्म की कंटीली झाड़ियों में खिलने वाले जहरीले फूल जब जगमगाने लगे तब उनसे निकलने वाली उम्मीदों की खुश्बू खतरनाक मंजर पैदा कर दी!कभी सुगन्ध बिखेरती जीवन की बगिया में अपनों के अपनत्व का कोलाहल अनुपम छटा बिखेरता था! वहीं अब बिखराव की बहती हवा में वैमनस्यता की बदबू घृणा का वातावरण परिकल्पित कर रहा है।एकल ब्यवस्था से परिष्कृत आस्था दुर्व्यवस्था के दावानल में झुलस‌कर मनहुषियत के भयावह मंजर में घर घर नव प्रवाह के तिलस्म से भरी तरक्की की राह प्रशस्त करता जा रहा है!विकृत होता आधुनिक समाज आज आधुनिकता के परिष्कृत परिवेश में विशेष परिवर्तन का संकेत दे रहा है! पुरातन सनातन समाज में जो कुछ ‌सन्दर्भित था भारतीय परम्परा के लिए समर्पित था उसका लगातार विलोपन केवल बर्बादी के अथाह गर्त मे लाईलाज मर्ज का सम्मवरण पैदा कर रहा है।आखिर हम कहां जा रहे हैं! क्या हो गया है आधुनिक समाज को! लगातार बृद्धा आश्रमों में भीड‌ बढ रही है! अनाथालयों में जगह कम पड़ रही है! लावारिश मरने वालों की संख्या में लगातार इजाफा हो रहा है? गांव बीरान हो रहे हैं! सुसान हो रहे हैं!बाप दादा की अमूल्य धरोहरो काअवमूल्यन आम बात हो गई है?शहर कस्बा आबाद हो रहे हैं! भारतीय संस्कृतियों का अवसान वर्तमान को परेशान कर रहा है!रीत रिवाज‌ तीज त्योहार ,आचार विचार, सदाचार ब्यवहार सब कुछ बदल रहा है!आने वाली पीढी जिस तरक्की की सीढ़ी पर चढ़कर अपने अतीत का अध्ययन करेगी उसको केवल पश्चाताप का सन्तान सताएगा। कोसेंगी अपने अतीत को जो इतिहास की बात बनता जा रहा है!संयुक्त परिवार!जिस तरह से बदलाव सम्मभाव को छोड़ते हुए अलगाव की ईबारत तहरीर कर रहा है वह विखंडन व विकृति के परिमार्जन के साथ मानव बस्तियों से भारतीय संस्कृत का समापन करने के लिए काफी है!संस्कार विहीन समाज' आधारहीन आस्था' खत्म होती समरसता आज की विवसता में तब्दील हो गया है? जब तक बस चले परिवार मे संस्कार का रोपण करें? वर्ना जो हो रहा है उस पर पुरातन संस्कृति का प्रभाव जिस दिन पूर्ण रुप से खत्म हुआ उस दिन का दृश्य काफी भयावह निश्चित रुप से देखने को मिलेगा।पश्चाताप के अलावा कुछ भी हाथ नहीं आयेगा? ----------

    जगदीश सिंह सम्पादक

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