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    श्री कृष्ण स्तुति _

    श्री कृष्ण स्तुति _

    जगती के प्राणाधार हो तुम,
    नंद_लाल तुम्हारी जय_जय हो।
    भव सागर की पतवार हो तुम,
    गोपाल तुम्हारी जय_जय हो।।

    हे चित्रकार ! हो चित्र रूप,
    जब_जब, धरती पर आते हो ।
    तब_तब मुरली की तान सुना,
    गीता का ज्ञान सिखाते हो ।।
    तू ही जग है, जगदीश तुही,
    जग में तेरी ही माया है ।
    तेरी माया की काया में,
    यह सारा जगत समाया है ।।
    इस पार तुम्हीं, उस पार तुम्हीं,
    वन_माल़ तुम्हारी जय_जय हो।
    भव सागर की पतवार हो तुम,
    गोपाल तुम्हारी जय_जय हो।।

    तुम सृष्टि रचाने वाले हो,
    तुम प्रलय मचाने वाले हो ।
    तुम आदि, अनादि, अनन्त, मध्य,
    त्रेलोक बसाने वाले हो ।।
    घट_घट वासी, अन्तर्यामी,
    हो अखिल विश्व के स्वामी तुम ।
    हो परमेश्वर विधि, हरि, हर, हो,
    हो काम रूप निष्कामी तुम ।।
    उजड़े घर के श्रृंगार हो तुम,
    जन_पाल तुम्हारी जय_जय हो।
    भव सागर की पतवार हो तुम,
    गोपाल तुम्हारी जय_जय हो।।

    हो अन्यायी के लिए काल,
    न्यायी के देवदूत हो तुम।
    तुम स्वर्ग_नरक,सुख_दुःख,दाता,
    योगेन्द्र नाथ अवधूत हो तुम।।
    नीलांबुज, श्यामल, कोमलांग,
    वृंदावन _विपिन _बिहारी हो ।
    पूतना, कंस शिशुपाल हनी ,
    प्रभु,गोवर्धन गिरिधारी हो ।।
    हे जगन्नियंता, जग नायक,
    जग_पाल तुम्हारी जय_जय हो।
    भव सागर की पतवार हो तुम,
    गोपाल तुम्हारी जय_जय हो।।

    यह सृष्टि सुसज्जित हाथो से,
    जब दिव्य _भाव, सरसाती है।
    नट नागर , सागर की लहरें,
    तेरा गुण गान सुनाती है।।
    जब गगन कुसुम,उड़_उड़ कर के,
    तेरे चरणों में झरते हैं ।
    तब गली, घाट, वन,उपवन में,
    रह, रह कर मस्ती करते हैं ।।
    हे जन रंजन, हे भय भंजन,
    खल_काल ,तुम्हारी जय_जय हो।
    भव सागर की पतवार हो तुम,
    गोपाल तुम्हारी जय_जय हो।।

    शिव,विष्णु तुम्हीं,रवि, चन्द्र तुम्हीं,
    हो सामवेद रस, छंद तुम्हीं ।।
    हो गायत्री का मंत्र तुम्हीं,
    हो पावक, मारूत, ॐ तुम्हीं ।।
    हो शुद्ध _बुद्धि, सद_वृत्ति तुम्हीं,
    हो सब तत्वों के मूल तुम्हीं ।।
    पीपल का पावन वृक्ष तुम्हीं,
    सदज्ञान,विभूति,सुकीर्ति तुम्हीं।।
    हो इन्द्र तुम्हीं, जान्हवी तुम्हीं,
    सुर_पाल तुम्हारी जय_जय हो।
    भव सागर की पतवार हो तुम,
    गोपाल तुम्हारी जय_जय हो।।

    हे अलख,अजन्मा,अग,अविरज,
    तुमअविगत,अविचल,अकल,अजर,।
    हे अगुण, अमोल,अतोल, अजय, 
    हे अक्षर,अविदित,अनघ,अमर ।।
    हे अयुत, अनंत, अमानुष, अज़,
    तुम अच्युत,अद्भुत,अकथ,अटल ।
    हे अखिल,अनादि,अमान,अभय,
    हे अविनश्वर, अक्षुण्ण,अमल ।।
    हे शान्ति, शील, सुषमा, के घर,
    नर_पाल तुम्हारी जय_जय हो।
    भव सागर की पतवार हो तुम,
    गोपाल तुम्हारी जय_जय हो।।

    तुम क्रांति, शान्ति, सुख_संचारक,
    पालक, पोषक, संहारक हो।
    तुम उग्र_उपद्रव, उद्धारक,
    उत्प्रेरक,उर _उप कारक हो ।।
    तुम ब्रम्ह, वेद, विद, विज्ञेश्वर,
    विश्रुत, व्यापक, विश्वंभर हो ।।
    तुम नीति_नरोत्तम, नर_नायक,
    विभु,विभुवर, विनिदायक वर हो ।।
    हे निराकार, हे नराकार,
    बृज_बाल तुम्हारी जय_जय हो।
    भव सागर की पतवार हो तुम,
    गोपाल तुम्हारी जय_जय हो।।

    जंगल में, शिखर हिमालय में ,
    नभ_मंडल, बादल, जल_तल में ।
    है चमक दीखती तेरी ही,
    इस चंचल थल में पल_पल में ।।
    हे महा हृदय, हे अटल सत्य,
    हे जगदाधार प्रणाम तुम्हे ।
    हे करुणाकर, हे मन मोहन,
    हे पालन हार प्रणाम तुम्हे ।।
    हे मित्र सुदामा के हितकर,
    महि_पाल तुम्हारी जय_जय हो।
    भव सागर की पतवार हो तुम,
    गोपाल तुम्हारी जय_जय हो।।

    डॉ शिव शरण श्रीवास्तव "अमल"
    (कवि, लेखक, वक्ता, मोटीवेटर, ज्योतिषी एवं समाजसेवी _पूर्व बैंक अधिकारी)

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