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    *इंसान कितने थे?*

    *इंसान कितने थे?*

    उठा था एक बवंडर
    दबे पांव 
    वैमनस्यता क्रूरता
    और
    अंधगामी प्रवृत्ति से ओत-प्रोत...

    टूट पड़ा 
    निरीह अबलाओं, अवस्यस्क बालकों पर
    कहर बनकर
    अपने हमसाया कहलाने वाला 
    पत्थर गोलियां लाठियों से हताहत कर रहा था। 

    कौन अपना
    कौन पराया
    दाहाने हाथ को बायां हाथ 
    दुश्मन दिखने लगा
    दहशत निर्ममता द्वेष
    मानों शिखर पर थे। 

    चहुं ओर 
    कोलाहल चीत्कार त्राहिमाम 
    का कातर आर्तनाद 
    भौतिकता पहले भस्मभूत 
    तत्पश्चात रेजा रेजा जमीदोज

    क्या यही है
    दानवता की प्रतिकृति
    सूखे आंसूं
    सूनी निहारती आंखें 
    वीभत्स मंजर

    अखबारों की कतरनें
    सड़कों का मौन चीरतीं.....
    शहर के उन्माद में आधा दर्जन हत
    और कुछ हुए घायल

    तभी आहत अंर्तआत्मा चीखी
    "इंसान कितने थे?"

    *प्रखर दीक्षित*

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