कहीं ऐसा ना हो !
हरा, भरा यह खिलता उपवन,
पतझड़ ही ना बन जाए।
भारत के भीतर भारत की,
अस्मत ही न छली जाए।।
सच को सच, झूठे को झूठा,
कहने मे संकोच जहां।
भारत वासी, हिंदुस्तानी,
बनने मे संकोच जहां।।
अगियारे, पछियारे, दाएं,
बाएं चारो ओर व्यथा।।
लोहे की औकात कहां जब,
सोने में ही जंग लगा।।
खतरनाक साजिश में पड़कर,
गुलशन ही न उजड़ जाए।
भारत के भीतर भारत की,
अस्मत ही न छली जाए।।
चोर, उचक्के, जालसाज सब,
यौवन के पर्याय बने।
पाखंडी, पापी, व्यभिचारी,
सत्ता के अभिप्राय बने।।
कुर्सी चिपको की बीमारी,
नगर, डगर में फैल रही।
बरबादी की स्वर्णिम प्लानिंग,
गांव, गली में घूम रही।।
सत्ता हित समझोता करके,
नीयत ही न बदल जाए।
भारत के भीतर भारत की,
अस्मत ही न छली जाए।।
गीत वेणु से अलग हुआ है,
शंख नाद से भटका है।
मानव का विश्वास घृणा की,
शूली पर ही लटका है।।
बुनियादी सिद्धांत, संहिता,
सभी ताक पर रखे हुए।
गिरवी है सम्मान देश का,
हाथ रक्त से सने हुए।।
क्षुद्र प्रकृति का खेल घिनौना,
खुद को ही न निगल जाए।
भारत के भीतर भारत की,
अस्मत ही न छली जाए।।
जाति, पंथ के आरक्षण से,
प्रतिभाओं का दमन हुआ।
तुष्टिकरण की कुटिल चाल से,
मानवता का पतन हुआ।।
राम नाम अपराध यहां पर,
सत्य बोलना पाप हुआ।
जागो! चेतो! सोने वालो,
वोटतंत्र अभिशाप हुआ।
बलिदानों से सींचा पौधा,
जड़ से ही न उखड़ जाए।
भारत के भीतर भारत की,
अस्मत ही न छली जाए।।
पहले ही हम बटवारे का,
दंश भयंकर झेल चुके।
सत्ता के मद के मतवाले,
खेल घिनौना खेल चुके।।
एक बार फिर से उन्मादी,
जहरीला रंग डाल रहे।
ऊंच_नीच का, राग _द्वेष का,
कीचड़ यहां उछाल रहे।
अमन चैन की यह धरती, फिर
से ही लाल न हो जाए।
भारत के भीतर भारत की,
अस्मत ही न छली जाए।।
नगर _डगर में, गांव _गली में,
बमबारी भी देखी है।
गलियारी से संसद तक में,
गद्दारी भी देखी है।।
पत्थर से घायल सैनिक की,
लाचारी भी देखी है।
खूनी राजनीति करने की,
मक्कारी भी देखी है।।
झंझावती तूफानों से,
नौका ही न पलट जाए।
भारत के भीतर भारत की,
अस्मत ही न छली जाए।।
डा शिव शरण श्रीवास्तव "अमल"