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    गति मति चकित भ्रमित हो बैठी,*

    गति मति चकित भ्रमित हो बैठी,*

    *गति मति चकित भ्रमित हो बैठी,*
    *छलनाओं का पार नहीं है।*
    *तूने ऐसा वृत्त बनाया,*
    *जिसमें कोई द्वार नहीं है।*

    *सत्यासत्य एक सा भाषित,*
    *किरण किरण है तम से शासित,*
    *श्रेय प्रेय अग्येय हुआ सा,*
    *सत्पथ नहीं हुआ उद्घाटित।*

    *महाशून्य में तिरते से हम,*
    *दिखता कुछ आधार नहीं है।*
    *तूने ऐसा वृत्त बनाया,*
    *जिसमें कोई द्वार नहीं है।*

    *भूत निविड़ तम से आवेष्टित,*
    *और कल्पना मात्र भविष्यत।*
    *स्वप्न सरीखा वर्तमान है,*
    *अभिशापित हो रहा अभीप्सित।*

    *मायावी का माया बल है,*
    *सहज सुलभ उद्धार नहीं है।*
    *तूने ऐसा वृत्त बनाया,*
    *जिसमें कोई द्वार नहीं है। 

          सुशील चन्द्र बाजपेयी, लखनऊ, उ०प्र०.*

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