कोई परिणाम नहीं मिला

    परमात्मा और पुरूषार्थ

    परमात्मा और परमार्थ -

    परमात्मा वास्तव में आत्मा कि परम यात्रा का ही सत्यार्थ है या कुछ अन्य आत्मा किवास्तविकता शोध का विषय है या नही अपने आप मे बड़ा प्रश्न है 

    आत्मा परमात्मा दोनों के शाब्दिक विवेचना में सिर्फ परम का ही प्रत्यंतर है आत्मा कि परम स्थिति ही परमात्मा कि प्रमाणिकता है ?

    परम स्थिति क्या है ?जो आत्मा को परमात्मा के प्रत्यक्ष साक्ष्य कि प्रमाणिकता को परिभाषित करती है यानी परम अर्थ ही परमात्मा के सत्य का बोध है जिसका तातपर्य स्प्ष्ट है कि जब काया में स्थित मन बुद्धि के अन्तरिक्ष में अवस्थित सत्य को प्राप्त कर लिया जाय वही आत्मा है और उसे स्वंय में अन्वेषित कर उसके प्रकाश से अपने मे निहित अंधकार संसय को समाप्त कर दिया जाय वही आत्म प्रकाश है और उसकी ऊर्जा शक्ति का प्रयोग जगत के कल्याण हेतु किया जाय वही परमार्थ है जो परमात्मा कि सत्य दृष्टि सांसारिक है ।

    प्राणवायु ही आत्मा का अस्तित्व है तो निश्चित ही नही क्योकि आत्मा का अस्तित्व सरभौमिक सर्वत्र अजेय अजन्मा है यही वास्तविकता परमात्मा कि भी है ईश्वर जिस भी सम्बोधन से पुकारा जाय अर्थ एक ही है ईश्वर अनंत स्वर के जैसा जब भी किसी भी भाषा भाव कि अभिव्यक्ति किसी भी प्राणि मात्र द्वारा अपने स्वर से की जाती है तो स्वर कि उत्पत्ति के बाद वह अनंत आकाश वायुमंडल में सर्वत्र गूंजता रहता है और कभी समाप्त नही होता है जो परमहंसः कि अवस्थित कि वास्तविकता है।

    जब आत्मा अपनी परम उद्देश्य कि पावन यात्रा के चर्मोत्कर्ष पर पहुंचती है तो वह स्थिति प्रज्ञ हो स्वयं कि काया में ही ब्रह्म ब्रह्मांड का साक्षात्कार करती है इसीलिये परमात्मा ,ईश्वर को जानने समझने या अन्वेषण के मार्ग जो बताये जाते है या तर्क प्रस्तुत किये जाते है तो प्रथम निष्कर्ष यही निकलता है कि स्वंय में ही निहित है और स्वंय में ही अन्वेषण करना होता है ।

    जिसका तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार अनंत आकाश में एक आकाश के बाद दूसरा दूसरे के बाद तीसरा इस प्रकार अनंत तक असीमित आकाश जो वास्तविकता के उद्देश्य मार्ग में शून्य है इसी प्रकार आत्मीय अस्तित्व का आरम्भ जिसके अन्वेषण मार्ग में ही आत्मीय अन्तता के आकाशीय परतों में प्राणि उलझ जाता है जो मोह, माया ,स्वार्थ ,द्वेष, गृणा, अहंकार, भोग आदि के स्वरूप में अनंत है जिसकी कोई निर्धारित सीमा नही है और जन्म जीवन के लिए प्राप्त काल समय को व्यतीत कर देता है।

    जब छुधा के लिए दो रोटी नही मिलती है तो वह सिर्फ दो रोटी कि चाहत में भटकता है जब वह मिलने लगती है तो उसे तरह तरह के पकवान छप्पन भोंगो कि लालसा के छितिज का भटकाव व्यथित करता है और वह भी प्राप्त हो जाने पर वह आश्रय के लिए महल अस्तित्व के लिए एक घर परिवार,समाज राज्य जाने क्या क्या भोग कि आकांक्षाओं के छितिज में भटककर आत्मा कि परम यात्रा के जन्म जीवन के काल समय को समाप्त कर देता है ।

    और पुनः अपनी स्वर आत्मा के साथ नए काया में सृष्टि में करमार्जित भोग को भोगता है वास्तव में कर्मवाद का भगवान श्री कृष्ण द्वारा कुरुक्षेत्र में दिया गया सिंद्धान्त जन्म जीवन मरण के अनंत चक्र में प्राणि मात्र कि आकांक्षा अनुरूप सद्कर्मो के लिए जागरूक एव प्रेरित करना ही है क्योंकि सम्भव नही है कि प्रत्येक प्राणी द्वारा आत्मा कि परम यात्रा के जन्म जीवन के ध्येय उद्देश्य को प्राप्त किया जा सके उसको कर्म भोग के अनंत छितिज के शून्य में भटकना ही होता है ।

    अतः उसकी काया द्वारा निष्पादित कर्म उसके जीवन मे सद्कर्मो कि उपलब्धता के आधार पर सृष्टिगत परम्परा में अगले चक्र का निर्धारण करते है ।

    जो प्राणि सृष्टि के जाल मोह, माया, भोग कि संस्कृति के अनंत आकाश के शून्य कि स्थिति से ऊपर उठ जाता है वह सृष्टि के गुरुत्वाकर्षण कर्षण प्रभाव से आगे निकल आत्मा के वास्तविक आवरण जन्म जीवन एव आत्मा कि परम यात्रा परमात्मा के अन्वेषण के परिक्षेत्र में प्रवेश कर जाता है।

    ठीक उसी प्रकार जब कोई उपग्रह वैज्ञानिकों द्वारा परपेक्षित किया जाता है तो वह सर्व प्रथम पृथ्वी कि कक्षा से बाहर हो गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र से बाहर निकलता है तब वह अपनी मूल संस्कृत का त्याग कर अपनी यात्रा के उद्देश्य के अगले पड़ाव के अनुरूप प्रकृति संस्कृति से संस्कारित हो जाता है जो वैज्ञानिकों द्वारा पूर्व में ही आंकलन एव गणना के आधार पर उपग्रह में निश्चित अंतराल के बाद के लिए विकसित किया गया होता है।

    परमात्मा सबसे श्रेष्ठ महान वैज्ञानिक है और वह स्वयं आत्मीय अंश अवशेष में प्राणि के प्राण में अवस्थित है जिसे आत्मा कहते है जिसमे परमात्मा द्वारा अपने सभी गुण संरक्षित किये जाते है साथ ही साथ उसकी परीक्षा एव चुनौती के लिए गुरुत्वाकर्षण के रूप में पृथ्वी कक्षा के आकर्षण के आकाश ऊपरी सतही परत के रूप में स्वार्थ,सत्ता, भोग,रोग,मोह,माया कि काया में विकसित कर अपने आत्मीय बोध को सूसुप्ता अवस्था मे रख दिये जाते है जो ठीक उसी प्रकार से होती है जिस प्रकार प्याज कि परतों को छीलते जाये और अंत मे कुछ भी हासिल नही होता ।

    मगर जो प्राणि प्राण वायु के अन्तरंग में अवस्थित आत्मीय सत्य को जान लेता है या जानने कि कोशिश करता है वह सर्व प्रथम परमात्मा द्वारा प्रदान किये पृथ्वी कक्षा के गुरुत्वाकर्षण के आकर्षण मोह माया भोग द्वेष दम्भ अहंकार आदि शून्य एव प्याज कि परतों कि तरह आकाश से स्वयं को मुक्त कर लेता है जिसके कारण उसे संपूर्ण ब्रह्मांड अपना एव प्राणिमात्र कि पीड़ा वेदना कि अनुभूति स्वयं में अनुभव करता है और परमात्मा के सत्य अर्थों में परमार्थ के जन जीवन के महायज्ञ के लिये संकल्पित हो स्वयं के आत्मीय कक्षा में प्रवेश कर उसकी सत्यता का अन्वेषण करता है और ब्रह्म ब्रह्मांड कि वास्तविकता के प्रमुख मार्गों से निकलता जाता और आत्मा के परम सत्य परमात्मा को प्राप्त कर वर्तमान जन्म जीवन को जगत कल्याण हेतु समर्पित कर देता है ।

    अंततः जन जीवन के चक्र से मुक्त हो ब्रह्म कि सत्ता में ही समाहित हो जाता है जो जन्म जीवन की आत्मा की परम यात्रा का परमात्मा की सत्यता तथा जीवन के बैभव परमार्थ कि प्रमाणिकता है।

    परमात्मा का वास्तविक स्वरूप क्या है वह अणु एव परमाणु कि क्रिया सक्रियता कि शक्ति है वह शुक्ष्म से सुक्षमटीएम है तो विकराल से विकराल तो उस तक पहुंचना कैसे संभव है उसके सूक्ष्म से विकरालतम के मध्य उस तक पहुंचने के मार्ग क्या है 

    परमात्मा तक पहुँचने के अनेकों मार्ग है भक्ति मार्ग सर्वश्रेष्ठ है नवधा भक्ति सनातन में बताई गई है वह परमात्मा तक पहुँचने के मार्ग कि दृष्टि है वास्तव में ईश्वर, परमात्मा के सिद्धान्त आचरण का प्रवाह जब प्राणि के सांस धड़कन का प्रवाह बन जाता है तब परमात्मा कि संवेदना उसमे जागृत होती है जो उसके आत्मीय बोध में सुसुप्ता अवस्था में रहती है और जागृत होने के लिए अवसर का तलाश करती रहती है।

    उस प्राणि के प्रति परमात्मा के मूल सिद्धांतों में परमार्थ परोपकार निःस्वार्थ सेवा भाव निष्काम कर्म ही श्रेष्ठ एव सरल है ।

    ध्यान से देंखे तो परमात्मा कि सृष्टि में प्रकृति एव प्राणि एक दूसरे के लिए ,एक दूसरे से, एक दूसरे के द्वारा ,ही पालित पोषित है ।

    वन प्राणि सिंद्धान्त को यदि ध्यान से देंखे तो सर्प ,शेर,भालू हाथी आदि जाने कितनी प्रजातियां है जो वन में निवास करती है और उनके जीवन चक्र का चलना एक दूसरे एवं वन पर ही निर्भर रहता है ।

    जिनको घास पत्त्ते पसंद है उनके लिए उपलब्ध है जिन्हें मांसाहार चाहिए उनके लिए मांस कि पर्याप्त व्यवस्था है वन में वन्य जीवों के अतिरिक्त आदि मानव जन जातीय मानव भी निवास करते है जो मांशाहार शाकाहार दोनों पर उपलब्धता के आधार पर निर्भर करते है।

    इसी प्रकार समुद्र जीव जीवन साम्राज्य बहुत विशाल और वहाँ एक ही सिंद्धान्त जो सक्षम है वही रहेगा कहावत है छोटी मछली बड़ी मछली को खा जाती है। 

    समूर्ण ब्रह्मांड में मात्र पच्चीस प्रतिशत भू भाग है शेष पचहत्तर प्रतिशत जल ही जल है सारी रचना परमेश्वर ईश्वर भगवान द्वारा ही रची गयी है विज्ञान में एक पहेली का प्रचलन है सिद्ध करिए ब्रह्मांड का प्रत्येक प्राणी शाकाहारी है बहुत स्प्ष्ट है कि जितने भी मांसाहारी प्राणि है वह शाकाहारी प्राणि का ही मांस भक्षण करते है जिसे विज्ञान अप्रत्यक्ष रूप से शाकाहारी ही मानता है उदाहरण के लिए हिरन खास खाता है शेर हिरन खाता है खास में भी संवेदना होती है उसमें भी परमात्मा का अंश विद्यमान है जिसके कारण हरा भरा एव बढ़ता रहता है जो शाकाहारी प्राणियों के जीवन के लिये आवश्यकता है तो मांसाहार करने वाले प्राणि के लिये शाहकारी प्राणि ठीक उसी प्रकार है जैसे घास जिस प्रकार शाकाहारी प्राणि खास चरता है तो उससे चर चर कि आवाज़ अर्थात घास के जीवन से विलग होने की पीड़ा वेदना ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार जब कोई मांसाहारी प्राणि किसी शाकाहारी प्राणि का शिकार करता है तो काया से प्राण के विलग होने की वेदना से प्राणि कि छटपटाहट कि वेदना का क्रंदन खास की वेदना कि अनुभूति प्रत्यक्ष नही कि जाति मगर किसी प्राणी के जीवन से अलग होने कि वेदना कि अनुभूति प्रत्यक्ष होती है घास के या किसी हरे भरे अस्तित्व के जीवन से अलग होने की वेदना वहाँ उपस्थित अन्य लता गुल्म बृक्षों द्वारा अपनी संवेदनाओं में कि जाति है जो परमात्मा के चर चराचर में उपस्थिति का सत्यार्थ है।

    बहुत स्प्ष्ट है कि जीवन जीवन से चलता है अर्थात एक जीवन को अपनी काया अस्तित्व को दूसरे के लिए समर्पित करना होता है चाहे ब्रह्मांडीय सिंद्धान्त के अंतर्गत या शक्ति के सिंद्धान्त के अन्तर्गरत अर्थात परमात्मा के परमार्थ सिद्धांत अंतर्गत जिएगा वही जो जीने योग्य है या जीवन के लिए आवश्यक ऊर्जा का स्वयं में सांचार करने में सक्षम है। 

    जबकि सभी मे घास से लेकर हिरन शेर सर्प में परमात्मा, ईश्वर विद्यमान है सभी के जीवन जन्म के लिये उत्तर दाई है मगर जलीय एव वन प्राणियों में परमात्मा का तलाश तो मौजूद है किंतु उनको इस सत्य से कोई लेना देना नही होता परमात्मा आत्मीय बोध का सत्य अवश्य है।

    लेकिन वह सभी प्राणियों को जीवन मे समान अवसर एक निश्चित समय के लिये उपलब्ध करा कर ब्रह्मांड में उसके स्वय के कर्म नियत पर छोड़ स्वय आत्मबोध के नेपथ्य से प्रति पल को देखता निहारता है।

    मानव जीवन सृष्टि के अन्य प्राणियों से अलग श्रेष्ठ है और मानव काया ही जीवन को सबसे अधिक पसंद करती है कारण स्प्ष्ट है मनुष्य ही परमात्मा सृष्टि का मात्र प्राणि है जो उनको समझने जान सकने कि क्षमता रखता है।

    सनातन में ईश्वरीय अवतारों के वर्णन में मत्स्य अवतार ,कक्षप अवतार,बाराह अवतार, नरसिंह अवतार जो ईश्वर के मानवीय अवतार नही है और जो उद्देश्य कि समाप्ति के बाद ही समाप्त हो गए मगर ईश्वर के मानव अवतार वामन,परशुराम, राम,कृष्ण वामन को छोड़ शेष सभी अवतारों में ईश्वर द्वारा सृष्टि में जीव जीवन एव आत्मा के संबंधों संवेदनाओं, काया, कर्म ,धर्म ,माया आदि को अपने सच्चिदानंद स्वरूप के अंतर्मन से प्रत्यक्ष मानवीय संस्कृति, संस्कारो को एक निश्चित काल तक सृष्टि एव पृथ्वी पर बिताया गया है और मानवीय सम्बन्धो, संस्कृति, संस्कारों का भविष्य कि आवश्यकतानुसार परिमार्जन किया गया है और मानव को यह अनुभूति कराने का प्रायास किया गया है कि मैं तुममें हूँ ,तुम मुझसे हो ,तुम्हारा मेरे अतिरिक्त कोई अस्तित्व नही है। 

    अतः तुम अपने कर्म, धर्म ,निश्चल निरपेक्ष भाव से मुझे समर्पित कर दो मै तुम्हारी अभिलाषा आकांक्षा मोक्ष का मार्ग संसाधन एव प्रकाश हूँ जो तुम्हारी आत्मा में अवस्थित होकर तुम्हे सत्य ,चित्त एव आनंद का मार्ग दिखाने का प्रायास करता हूऔर तुम्हे अपने सिद्धात परमार्थ हेतु जीवन जीने का बोध कराता रहता हूं मगर तुम पल भर कि संतुष्टि इन्द्रिय सुख में भटक जाते हो जिसके कारण तुम्हारी आत्मीय बोध में मेरी अनुभूति दिखाई सुनाई नही पड़ती और स्वय को ही मेरा प्रत्यक्ष मान लेते हो जो तुम्हे भयंकर अंधेरे में धकेल देता है और तुम्हारी आत्मा यानी मेरा सत्य प्रत्यक्ष तुम्हारी जागती दो आंखों कि निद्रा में चली जाती है और तुम्हारी आत्मिक बोध का मैं प्रकृति के उस नर्म खास एव खूबसूरत हिरन से खूंखार शेर बन जाता हूँ जो अहंकार ,क्रोध ,मद ,में जन्म जीवन के आत्मीय बोध कि सत्ता आत्मा के अस्तिव को नकार देता है परमात्मा के परमार्थ वाद को त्याग देता है।

    नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर गोरखपुर उतर प्रदेश


    एक टिप्पणी भेजें

    Thank You for giving your important feedback & precious time! 😊

    और नया पुराने

    संपर्क फ़ॉर्म