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    अवनि चेतना स्त्री नारी

    शीर्षक - अवनि चेतना स्त्री नारी

    अवधारणा एवं स्वरूप -

    साहित्यिक आंदोलन जिसमे स्त्री कि गरिमा महिमा मर्यादा के सापेक्ष एकात्म भाव से स्त्री साहित्य कि रचना कि जाती है जिसमें स्त्री अस्मिता के महत्वपूर्ण अवयव आयाम को संगठित रूप से प्रस्तुत किया जाता है अंग्रेजी में फेमनिज्म के रूप में जाना जाता है जो लिंग विमर्श का महत्वपूर्ण अयवय है।

    अतीत एवं वर्तमान -

    साहित्यिक आंदोलन का एक अति महत्वपूर्ण आयाम है स्त्री विमर्श जिसके अंतर्गत स्त्री कि मर्यादा के केंद्र में संगठित रूप से रचनाये प्रस्तुत की जाती है अन्य मर्यादा मुल्यों के विमर्श की भांति स्त्री विमर्श भी है अंतर सिर्फ यह है कि यह लिंग आधारित है।

     नारी वाद सिद्धांतो का स्प्ष्ट सिंद्धान्त है लैंगिक असमानता कि प्रकृति एव कारणों को समझना एव उसकी जटिल समस्याओं जैसे भेदभाव कि नीति राजनीति सिद्धांतो अवसर की व्यख्या करना ।।

     राजनीतिक प्रचारों का जोर प्रजनन संबंधित अधिकार घरेलू हिंसा मातृत्व अवकाश समान वेतन अधिकार यौन उत्पीड़न यौन हिंसा भेद भाव पर केंद्रित रहता है।स्त्री विमर्श के मूल में निहित तत्व वैधानिक आधार या कानूनी आधार पर लिंग असमानता एव भेद भाव को समाप्त करने का साहित्यिक संकल्प होता है।स्त्री विमर्श कि आलोचनाओं का भी यही आधार है कि स्त्री विमर्श पाश्चात्य संस्कृति कि अवधारणा को धरातल प्रदान करती है।

     वास्तविकता यह है कि स्त्री विमर्श हर देश की भौगोलिक सीमाओं में अपने परिवेश परिस्थितियों एव संस्कृति संस्कार के मध्य अपनी समस्याओं के कारण लिंग भेद पर आधारित होती है अतः इसे पाश्चात्य संस्कृति कि कोख कि उपज कहना उचित नही है।

    : नारी विमर्श फेमिनिज्म /फेमिनिस्ट डिस्कोर्स का आरम्भ कब हुआ इस संदर्भ में कोई एक मत सिंद्धान्त नही है इस संदर्भ में भिन्न भिन्न मत है कुछ विद्वानों का मत है की उन्नीसवीं शताब्दी में पश्चिम में स्त्री मताधिकार के साथ हुआ था एव स्त्रियों के योगदान कि चर्चा के साथ आरंभ हुआ बीसवीं सदी में फ्रांसीसी लेखक कि पुस्तक सिमोन द बुआ कि पुस्तक द सेकेंड सेक्स के प्रकाशन वर्ष 1949 से मानते है एलमन कि पुस्तक थिंकिंग अबाउट विमन 1968 के प्रकाशन वर्ष को भी माना जाता है ।वर्जिनिया बुल्फ़ ने अपनी पुस्तक ए रूम ऑफ वन्स ओन (अपना निजी कक्ष 1929 ) में 
    लिखा है--

    #व्हाइट हाल के पास से गुजरते हुए किसी भी स्त्री को अपने स्त्रित्व का बोध होते ही अपनी चेतना में अचानक उत्तपन्न होने वाली दरार को से आश्चर्य होता है मानव सभ्यता कि उत्तराधिकारिणी होने पर वह इसके बाहर इससे परकीय और इसकी आलोचक कैसे हो सकती है# 

    स्त्री विमर्श आंदोलन के आरम्भ या इतिहास को किसी निश्चित सीमा या दायरे में बांध कर परिभाषित करना उचित नही है यह मानव सभ्यता एव मानवीय मूल्यों की अक्षुण विरासत का हिस्सा एव इतिहास तथा वर्तमान है। भारतीय परिपेक्ष्य में एव उसके इतिहास का अवलोकन करने पर स्प्ष्ट है कि भारत मे स्त्री मर्यादा एव उसके सम्मान के सापेक्ष बहुत से साक्ष्य प्रमाण उपलब्ध है जो लैंगिक असमानता पर नारी विमर्श के सिद्धांत को पूर्ण सत्य को नकारते प्रतीत होते है। जैसे राजा दशरथ के साथ देवा सुर संग्राम में सारथी बनाना इसका सर्वोत्तम प्रमाण है।।

    संस्कृति शिक्षा एवं स्त्री -

    नारी शिक्षा से सामाज में आमूल परिवर्तन का प्रवाह प्रवाहित होता है।
     समाज मे कर्तव्यनिष्ठ दायित्व बोध के विनम्र जागरूक एव संवेदनशील सांस्कारिक पीढ़ी के निर्माण में एव राष्ट्रीय विकास के आधार का वास्तविक निर्माण होता है।

    अतः स्त्री शिक्षा अत्यंत उपयोगी महत्वपूर्ण किसी भी समाज राष्ट्र के लिये है। स्त्री शिक्षा स्त्री और शिक्षा को आवश्यक एव अनिवार्य रूप से जोड़ने वाली अवधारणा नही वल्कि याथार्त है ।

    पुनर्जागरण एव मध्य काल मे भारत मे स्त्रियों के लिये विशेष शिक्षा व्यवस्था बनाई गई जो पुरुषों की शिक्षा से भिन्न थी वर्तमान परिवेश में आवश्यक एव सर्वमान्य है कि जितना पुरुष शिक्षित हो उतना ही स्त्री को भी शिक्षित होना चाहिये क्योंकि शिक्षित माता पिता ही राष्ट्र समाज के लिये एक शसक्त नागरिक दे सकने में सक्षम होंगे जो एक सक्षम सबल सुदृढ समाज राष्ट्र के भविष्य के सूचक होंगे।

     स्त्रियों के विकास में वयस्क शिक्षा का महत्वपूर्ण योगदान है अधिकारों को सुरक्षित करने के लिये लड़कियों एव महिलाओं को सक्षम सबल बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करती है शिक्षित लड़कियां या महिलाएं किसी भी स्थिति परिस्थिति का सामना दृढ़ता से करने में एव चुनौतियों को विजित करने में सफल होती है।

    रूढ़िवादी संस्कृति एव दृष्टिकोण लड़कियों को पाठशाला जाने कि अनुमति नही देता इसके कई कारण भी है ।गरीबी जिसके कारण आर्थिक स्थिति अच्छी नही होने के कारण समाज सर्वप्रथम लड़कियों कि शिक्षा को ही रोकता हैं असमर्थ माता पिता अपनी लड़कियों को पढ़ने नही भेजते लड़को कि शिक्षा के लिये किसी भी चुनौती से दो चार होना स्वीकार करते है।

    वर्तमान शिक्षा में स्त्री कि भूमिका -
    भारत मे प्राचीन वैदिक काल से ही लड़कियों की शिक्षा का प्रचार था मुगल काल मे इस्लामिक प्रभाव से लड़कियों की शिक्षा कि भारतीय परंपरा लगभग समाप्त हो गयी पुनर्जागरण के दौर में स्त्री शिक्षा को नए सिरे से प्रोत्साहन प्राप्त होने लगा सन 1854 में ईस्ट इंडिया कम्पनी द्वारा स्त्री शिक्षा को सिंद्धान्त स्वरूप स्वीकार किया गया तब स्त्री शिक्षा .02 प्रतिशत से 6 प्रतिशत पहुंच गया महिलाओं की शिक्षा के शुभारंभ का प्रथम विश्वविद्यालय कोलकाता विश्विद्यालय है 1986 में राष्ट्रीय शिक्षा नीति प्रत्येक राज्य को सामाजिक रूप रेखा के साथ शिक्षा का पुनगर्ठन करने का निर्णय लिया गया आजादी के बाद 1947 से भारत सरकार ने लड़कियों की शिक्षा के लिए अनेको कार्यक्रम का शुभारंभ किया जिसके अंतर्गत निशुल्क शिक्षा पुस्तके दोपहर का भोजन आदि ।

    जान इलियट द्वारा खोले गए प्रथम महिला विश्वविद्यालय जो 1949 में बुमेन्स कॉलेज हुआ लड़कियों औए स्त्री शिक्षा से समाज मे आत्म निर्भरता बढ़ती है नारी शिक्षित होकर पुरुष की प्रतिद्वंद्वी बन उसके समक्ष खड़ी हो जाय तब स्त्री शिक्षा का महत्व समाप्त हो जाता है जब स्त्री शिक्षित होकर आर्थिक क्षेत्र में पुरुष के समानता का अधिकार प्राप्त कर उसकी सबल सक्षम सहयोगी के रूप में विकसित होती है ।
     
    बदलते परिदृश्य में स्त्री का स्वरूप -

    समाज राष्ट्र में नारी की शिक्षा वास्तविकता एव यथार्थ है यदि ना भी आर्थिक बराबरी करे तब भी वह परिवार एव पीढ़ी के मार्गदर्शक के रूप में आदर्श एव पुरुष के बराबरी कि भूमिका का निर्वहन करने में सक्षम होती है जिससे समाज की संकीर्ण मानसिकता का समापन एव स्वस्थ विकासोन्मुख प्रतिस्पर्धी समाज के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करती है।

     समय के साथ साथ समाज सभ्यता में परिवर्तन अनिवार्य कभी कभी यह परिवर्तन कभी सकारात्मक तो कभी नकारात्मक प्रभाव डालते है समय के साथ साथ स्त्री नारी लड़कियों की सामाजिक स्थिति में परिवर्तन बहुत सकारात्मक और विकासोन्मुख है पहले लड़कियों की शिक्षा पर बहुत ध्यान नही दिया जाता था और उन्हें मात्र सृष्टि कि परम्परा के निर्वहन का एक हिस्सा मात्र ही समझा जाता था यह मध्यकाल में स्त्री की वास्तविकता थी पुरातन भारतीय समाज मे नारी एक महत्वपूर्ण शक्ति निर्धारित थी समाज एव सृष्टि धर्म की मान्यताओं में गार्गी,विद्यतमा,अनसुईया, आदि अनेक नाम भरतीय सभ्यता एव समाज को गौरवान्वित करते है मगर कहते है समय का चक्र उल्टा सीधा दोनों ही चलता है जो बहुत प्रावशाली घातक एव उपयोगी दोनों परिणाम देता है धीरे धीरे भारतीय सभ्यता में अन्य सभ्यताओं के संक्रमण से नारी की स्थिति में नकारात्मक परिवर्तन आया जिसके कारण आज हम नारी के विषय मे किसी भी सकारात्मत शुभारंभ के लिए पाश्चात्य देशों पर निर्भर है जो स्वय के लिये विवेचना का विषय है। 

    दशा दिशा -

    भारत मे स्त्रियों कि स्थिति के बदलाव का प्रमुख कारण शिक्षा है लड़कियों की शिक्षा के प्रति आम भारतीयों में जागरूकता है जिसके कारण स्त्री का स्वरुप शक्ति सहयोग समाज राष्ट्र निर्माण में महत्वपूर्ण हैं होना भी चाहिए।

    सम्पूर्ण विश्व की आबादी की लगभग आधी आबादी अगर अशिक्षित निष्क्रिय होगी तब समाज का क्या होगा बहुत स्पष्ट है भारत मे जहाँ सती प्रथा बाल विवाह आदि से नारी स्वतंत हुई है तो तीन तलाक कि जलालत से स्वाभिमान कि जिंदगी का मार्ग प्रसस्त हुआ है।

    ग्रामीण क्षेत्रो में भी स्त्री कि स्थित में बहुत सुधार हुआ है ग्रामीण महिलाएं अपने अधिकार एव संस्कार के मध्य समन्वय बनाने में सफल हुई है ।

    महिलाएं सेना सहित हर जगह पुरुषों के बराबर कंधे से कंधा मिलाकर चल रही है एव राष्ट्र समाज मे अपनी शसक्त भूमिका का निर्वहन कर रही है।नारी माँ बेटी गृहणी बनकर समाज को गरिमा गौरव प्रदान कर रही है तो डॉक्टर ,इंजीनियर ,वैज्ञानिक ,मन्त्री , कलेक्टर ,पुलिस ,रक्षा सेनाओं में अपनी योग्यता का लोहा मनवा रही है अभी हाल ही में भरतीय लोकतंत्र ने अपने इतिहास के अनुकरणीय यात्रा के बेहद अहम पड़ाव में आदि वासी समाज कि संघर्ष शील नारी गौरव आधुनिक भारत मे नारी समाज के लिये प्रेरणा द्रोपदी मुर्मू जी को राष्ट्र के सर्वोच्च पद देश के प्रथम नागरिक राष्ट्रपति के लिये चुन कर नारी अभिमान के इतिहास में स्वर्णिम अध्याय को जोड़ा है।

    अनेक सार्थक प्रायास शासकीय, संवैधानिक, सामाजिक करने के बाद स्त्री के सम्मान एवं आत्मविश्वास में वृद्धि होने के बाद लड़को के बराबर पैतृक संपत्ति में अधिकार जैसे दृढ़ एव सार्थक कदम उठाने के बावजूद बदलते समय मे नारी के लिये नई समस्याओं ने जन्म ले लिया है जैसे भ्रूण हत्या,लैंगिक आसमानता का दुराग्रह एव दहेज का दानव बेटी बेटों में असमानता एव दहेज प्रथा तो अब सामाजिक विकास शिक्षा के साथ दम तोड़ती प्रतीत हो रही है मगर भ्रूण हत्या आज के वैज्ञानिक युग मे स्त्री के अस्तित्व पर ही प्रहार है ।

    जिसे सभ्य समाज एव विकासोन्मुख राष्ट्र के लिए कदापि न्यायोचित नही ठहराया जा सकता है कानून है पालन करने कि दृढ़ इच्छाशक्ति का ह्रास है ।सच है बदलते समय मे स्त्री ने बहुत स्वतंत्रता प्राप्त करते हुए लगभग पुरुषों की बराबरी करते हुए कंधे से कंधा मिलाते हुए राष्ट्र समाज निर्माण में अति महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन कर रही है।

    जो शुभ संकेत है फिर भी महिलाओं के लिये वहुत कुछ हासिल करना शेष है जिसके लिए सर्व प्रथम नारी स्त्री महिला लड़कियों को ही संकल्पित होना पड़ेगा जब भी किसी महिला की वेदना गूंजे सारी स्त्री समाज को एक साथ खड़ा होना होगा एव यह भी सुनिश्चित करना होगा कि महिला स्त्री नारी के कारण स्त्री महिला नारी लड़की का अपमान ना हो ना आहत हो।।

     समाज मे स्त्री एव पुरुष दो महत्वपूर्ण अवयव घटक है मगर पुरुष प्रधान समाज मे स्त्री के साथ अन्याय अत्याचार भी बहुत हुये स्त्री को मात्र ग्रहणी घर की शोभा समझकर समझा जाता था जो कदाचित भारत की संस्कृति का हिस्सा नही था भारत मे तो नारी जत्र पूज्यएते रमन्ते तंत्र देवता का प्रामाणिक समाज है मगर समय के साथ सांस्कृतिक संक्रमण के कारण स्त्रियों के सामाजिक स्तिति में बहुत परिवर्तन हुए जिसके कारण उनके विरुद्ध पुरुषों का अत्याचार शोषण अन्याय का एक अलग इतिहास है जो भारत की स्वतंत्रता के साथ एव भारतीय संस्कृति के पुनर्वास पुनरागम पुनर्जीवित होने के साथ सकारात्मता के साथ परिवर्तन कि तरफ अग्रसर है यहाँ एक उदाहरण बहुत समचीन होगा जब नरकासुर से संग्राम में भगवान श्री कृष्ण युद्ध लड़ रहे थे तब सत्यभामा उनकी सारथी थी भारतीय संस्कृति में स्वयंवर नारी कि स्वतंत्रता उसकी इच्छा का सम्मान उसके आत्म सम्मान से जुड़ा था स्वयम्बर में कुछ निर्धारित योग्यता के मान दंड अवश्य निर्धारित होते थे फिर भी स्त्री स्वतंत्रता सर्वोपरि थी सांस्कृतिक संक्रमण के कारण भारतीय समाज दिशा दिग्भ्रमित हो गया जिसके परिणाम स्वरूप उसके सांमजिक संरचना पर दुष्प्रभाव को नकारा नही जा सकता पुरुष कि प्रधनता मध्यकालीन इतिहास कि देन है जहाँ स्त्री को विवश लाचार बनाकर पुरुष सत्ता का दास बना दिया कभी युद्ध मे हार के बाद उनके सौदे पुरुष समाज करता तो कभी जौहर के लिए विवश इसमें स्त्री समाज डरी सहमी प्रताड़ित होती रही ।

    स्त्री की साहित्यिक भूमिका एवं चुनौती -

    भारत कि स्वतंत्रता के बाद हिंदी साहित्य सुभद्रा कुमारी चौहान, महादेवी वर्मा, सरोजिनी नायडू,उषा देवी मित्रा आदि विदुषियों कि लेखनी के स्वर से गौरवान्वित हुआ। 

    साहित्य में या किसी क्षेत्र में नारी योगदान का योगदान पुरुषों से कम नही है साहित्य के क्षेत्र में स्त्रियों की भागीदारी में तेजी से बृद्धि हो रही है वह नारी जिसे पुरूष प्रधान समाज मे सती सावित्री ही समझा जाता था या सिर्फ स्वप्न लोक कि सुंदर देह भर थी एक निष्प्राण देह भर थी जिसके भीतर भावनाओं का लोप था और पुरूष समाज के इशारे पर कुछ भी करने को तैयार थी नारी ने अपनी उस परम्परागत छवि को तोड़ दिया है पुरुषों के लिए आश्चर्य एव अपने एकाधिकार के समाप्त होने का भय है।

    जब स्त्री के अंतर्मन में छटपटाहट कि अभिव्यक्ति हुई मन्नू भंडारी,ऊषा प्रियंवदा, चंद्र किरण सौंनरिक्सा,शशि प्रभा शास्त्री का लेखन नारी अस्मिता कि तलाश है।स्त्री साहित्यिक अभिव्यक्ति में साहित्यिक प्रतिबद्धता तो झलकती ही है राजनैतिक विचारों का प्रभाव नही होता। जिग्निनामा,महाभोज,अनित्य,सात नदियां एक समंदर आदि सामानिक राजनैतिक चिंतन युक्त उपन्यास है महिला लेखन कुछ प्रतिशत साक्षरता का बोध हो लेकिन नित्य निरंतर अपने संकल्पों के उद्देश्य कि तरफ बढ़ रहा है।।

     सठोत्तरी कहानियों में स्त्री -

     हिंदी कहानियों में स्त्री विमर्श के अलग अलग दौरे है स्त्री साहित्यकारों द्वारा बिभिन्न दृष्टियों दृषिकोंण से जांचा परखा निकला स्त्री कि वास्तविकता का बोध है स्त्री विमर्श में स्त्री के पौराणिक दैवीय रूप को नकारकर महज मानवीय रूप में प्रतिष्ठित करने की मांग तथाकथित बुद्धिजीवी वर्ग समक्ष प्रभवी रूप से प्रस्तुत की गई जिससे परम्परागत, रूढ़िवादी संकीर्ण सोच के दबे छिपे जंग लगे आवरण से बाहर निकालकर उसके सहज मानवीय स्वरूप को स्वीकार कर सके कठोर नितमो सामाजिक मर्यादा छद्म धर्म के तले पिसती वह सर्वाधिक कमजोर आर्थिक स्थिति कि पीड़ा को झेलती स्त्री मात्र समाज मे देवी स्वरूपा बनी पिसती रही ।

    समकालीन नवगीतों में एवं साथोत्तरी कहानियों में स्त्री -

    स्त्री सम्पूर्ण जीवन मे पिता पुत्र एव पति तीन प के बंधनों में जकड़ी जो मध्य काल आते आते और भी भयावह स्तिति में पहुँच गयी ।
    मध्य काल मे सामंती शोषण के विरुद्ध उठकर स्त्री के अधिकारों अस्मिता और निर्णय लेने के विवेक का मशाल जलाकर खुली चुनौती देती चेतना सम्पन्न भक्त कवियत्री मीरा ने --

    (राणा जी ।थे क्योंने राखो म्हांसु बैर)स्वतंत्रता के पश्चात साहित्य में बहुत आंदोलन हुये।।


     सन 1970 के आस पास लिखी गयी कहानियों को समकालीन कहानी माना जाता है समकालीन का स्पष्ठ अर्थ है एक ही समय मे परिभाषित होने वाले व्यक्तियों व्यक्तित्वों को कहा जाता है चाहे साहित्य हो या कोई भी क्षेत्र हो इसमें अविरलता वर्तमान के यथार्थ पीड़ा के साथ होता है डॉ अंजनी दुबे के अनुसार सुख के रहते कागज पर निर्रथक करते रहने से समकालीन सिद्ध नही होता ।
    समकालीन साहित्यकार परिवर्तन का अभिलाषी होता है उसमें आंदोलन कि प्रबृत्ति होती है यह स्थापित व्यवस्था एव शोषकों पर आक्रामक होती है ।परिवर्तनशील सामाजिक यथार्थ को अपनी कृति के द्वारा व्यक्त करता है ।हिंदी कहानी का अर्थ कहना या सुनना कहने एव सुनने की प्रथा बहुत प्राचीन है ।

    अपने विचारों को कहना एव सुनना मानव का पमुख गुण है ।

    रविंद्र नाथ ठाकुर का कहना है की -(मनुष्य जीवन एव जगत स्वय में एक कहानी है ) भारत भूमि ने प्रारम्भ से लेकर आज तक स्त्री के अनेको उतार चढ़ाव को देखा है भारतीय इतिहास के पन्ने जैसे जैसे पलते गए वैसे वैसे सब कुछ बदलता गया स्त्री के दिव्यगुण धीरे धीरे अवगुण बनने लगे और वह साम्रगी से आश्रिता बन गयी ।कहानी बहुत प्रिय विधा है क्योंकि कम समय मे बहुत कुछ समझाने का प्रायास किया जाता है कहानी लिखने का श्रेय एक महिला साहित्यकार को ही जाता है सन 1907 में प्रकाशित बंग महिला यानी श्रीमती राजेन्द्र बाला घोष दुलाई वाली आधुनिक हिंदी कि प्रथम मौलिक कहानी है इसके बाद सुभद्रा कुमारी चौहान विखरे मोती ,उन्मादिनी सीधे साधे चित्र इनके कहानी संग्रह है।स्वतंत्रता पूर्व कि कहानियों में सुमित्रा कुमारी सिन्हा अचल सुहाग और वर्ष गांठ स्त्री प्रतिरोध से संबंधित कहानी संग्रह है।

    स्त्री प्रतिरोध से समधित प्रेम चंद्र कि कहानियों में ऊषा देवी मित्रा, संध्या पूर्व रात कि रानी,मेघ मल्हार आदि संग्रहो में संकलित है कमला चौधरी का उन्माद, कमंडल, पिकनिक हेमा देवी कि धरोहर, स्वप्न भंग,अपना घर आदि इसी प्रकार चंद्रकिरण सौंन रैक्सा,कमल त्रिवेणी शंकर,तेजरानी पाठक ,कि कहानियाँ स्त्री प्रतिरोध को शक्ति प्रदान करती है।।

    हिंदी उपन्यासों में स्त्री -

    उपन्यासों पर स्त्री विमर्श का बहुत गहरा प्रभाव है कृष्णा सोबती,मन्नू भंडारी,ऊषा प्रियंवदा, आदि द्वारा स्त्री जीवन का प्रमाणित अंकन किया गया जो उपन्यासों फलीभूत हुआ मृदुला गर्ग के उपन्यासों कठगुलाब, चितकोबरा, एव मिलजुल मन स्त्री मुक्त चेतना का रचनात्मक सकारात्मक अंकन है प्रभा खेतान का उपन्यास छिन्नमस्तिका नारी जीवन कि छुपी सच्चाई का रहस्योद्घाटन करता है मैत्रेयी पुष्पा ने अपने उपन्यास इडन्नम ,आत्मा कबूतरी,चाक आदि में स्त्री मुक्ति के प्रश्न को पुरजोर तरीके से चित्रा मुद्गल की आंवां ,मंजुल भगत का अनारो नासिरा शर्मा का शाल्मली ,सितांजलि श्री का तिरोहित आदि अपनी अपनी विशेष शैली में स्त्री चेतना मूक्ति कि शसक्त अभिव्यक्ति है।अतः यह प्रामाणिक सत्यार्थ है स्त्री मुक्ति चेतना हिंदी उपन्यास का महत्वपूर्ण पहलू है।।

    हिंदी नाटकों में स्त्री -

    साहित्य समाज का दर्पण होता है साहित्य मानव जीवन कि पूर्णता संपूर्णता से संबंधित है जिसका योगदान समाज के उद्धान पतन से होता है प्राचीनकाल से ही भारत मे पितृ सत्तात्मक व्यवस्था रही है इसी कारण समाज के बिभिन्न क्षेत्रो में पुरुषों का आधिपत्य बना रहा ।स्त्री की स्तिथि दासी या दोयम दर्जे की नागरिक कि रही है पुंसवादी समाज मे स्त्रियों के साथ असमानता का व्यवहार परिवार से ही प्रारम्भ हो जाता भारतीय समाज मे आज भी पुत्रियों के जन्म को लेकर रूढ़िवादी है जैसी आपकी मर्जी नाटक में पुत्री जन्म को समझा जा सकता है वर्तमान समाज मे पुत्र पुत्री में भेद भाव के कारण बहुत सी समस्यों ने जन्म ले लिया है भ्रूण हत्या लिंग परीक्षण गम्भीर समस्या बन चुकी है ।इन समस्याओं के प्रति नाटककारों का ध्यान जाना बहुत स्वभाविक है नाटकारो ने इन समस्याओं को अपने नतको के माध्यम से बहुत सकारत्मक प्रस्तुति देने की कोशिश किया है एम जी सचिन का नाटक -कन्या का मूल कन्या भ्रूण पर आधारित है ।सदियों से स्त्री को मारना उंसे प्रताड़ित करना उसके साथ बलात्कार करना स्त्री को पुरुष के अधीनस्थ रखने के ऐसे तरीके आज भी समाज मे ज्यो के त्यों है नाटकों के अध्ययन से स्पष्ठ होता है कि स्त्री अब अपनी अस्मिता एव अधिकारों के प्रति जागरूक एव सबल हुई है आज कि स्त्री मात्र भोग नही बनाना चाहती पुरुष के हाथो कठपुतली बनकर नही रहना चाहती ।।
                          -नन्दलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर 

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