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    ज्ञानी से अज्ञानी भले जो फूट - फूट कर रोते हैं

    ज्ञानी से अज्ञानी भले जो फूट - फूट कर रोते हैं
    छिने पिता तुल्य आकाश तो नयनों से सावन झमाझम बरसते हैं
    गई माता तो धरती - अम्बर डोलते हैं
    ज्ञानी से अज्ञानी भले जो फूट - फूट कर रोते हैं।


    कभी माता की लोरी सुनाई देती तो 
    कभी पिता की पुचकार
    कभी माँ की झिड़की तो
    कभी पिता की डांट
    ज्ञानी से अज्ञानी भले जो फूट-फूटकर रोते हैं।।

    कभी पिताकी समझाईश तो
    कभी माताकी जुदाई याद आती है
    कभी माँ के हाथ की रोटी तो
    कभी पिता के दंडे याद आते हैं
    ज्ञानी से अज्ञानी भले जो फूट-फूटकर रोते हैं।

    ज्ञानियों के लिए शोक - अशोक कैसी
    उनका चित्त भी स्थिर होता है
    चाहकर भी वे रो नहीं पाते
    अश्रुधारा भी आँखों में सूखता है
    ज्ञानी से अज्ञानी भले जो फूट-फूटकर रोते हैं।। 
    -अजीत सिन्हा
    २४ फरवरी २०२३ दिन शुक्रवार

    *दिवंगत माता - पिता की याद में 👆*

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