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    ढोल, गवार, शूद्र, पशु, नारी।सकल ताड़ना के अधिकारी।।

    ढोल, गवार, शूद्र, पशु, नारी।
    सकल ताड़ना के अधिकारी।।

        गोस्वामी तुलसीदास जी द्धारा रचित रामचरित मानस की इस चौपाई पर काफी हो हल्ला मचा हुआ है, इसके विरोध मे कुछ ना_ समझ लोग इस पवित्र ग्रंथ की प्रतियां जला रहे हैं, कुछ इस पर प्रतिबंध लगाने की मांग कर रहे हैं। ऐसे लोग वास्तव मे उन्ही राक्षसों के समान कहे जा सकते हैं जो त्रेता युग में विश्वामित्र के यज्ञ को विध्वंश करने का कुत्सित प्रयास करने का प्रयास करते थे।
          वास्तव मे इसे सही तरह से समझने की जरूरत है।सबसे पहले तो यह जानना जरूरी है कि, यह न तो तुलसीदास जी का कथन है और न ही सनातन संस्कृति का और न ही रामचरित मानस के नायक, जन_जन के आराध्य भगवान राम का।
            यह कथन राम से भयभीत होकर समुद्र का है, इसे तुलसीदास जी बता रहे हैं कि, समुद्र ने ऐसा कहा।
        मान लीजिए आज कोई पहलवान किसी दुबले _पतले कमजोर आदमी को अपने बाहु _पास में जकड़ लेता है और उसे मारना चाहता है तो ऐसे मे वह दुबला _पतला व्यक्ति अपने बचाव में क्या कहेगा ? वह गिड़गिड़ाएगा, अपने को नीच, पापी, अधम कहेगा,उसका एक मात्र उद्देश्य अपने को उस पहलवान से बचाना है, ठीक यही भगवान राम के चंगुल में फंसे समुद्र की भी स्थिति है ।
    उसकी बातों को अगर विधर्मी या अन्य सनातन विरोधी इसे तुलसीदास जी या सनातन से जोड़कर भ्रम फैलाते हैं, तो या तो यह उनका मानसिक दिवालिया पन है या फिर घोर षडयंत्र है।

       एक जगह और लिखा है कि __

    नारि स्वभाव सत्य सब कहही।
    अवगुण आठ सदा उर रहही।।

           अब इस कथन के आधार पर तुलसीदास जी की आलोचना की जाय या इसे सनातन संस्कृति का उद्घोष कहा जाए तो ऐसे लोगों की बुद्धि पर तरस आना स्वाभाविक ही है।

          वास्तव मे यह कथन रावण का है, रावण इस पवित्र ग्रंथ में खलनायक की भूमिका में है, अब अगर इस रावण के कथन को तुलसीदास जी या सनातन संस्कृति से जोड़कर प्रचार किया जाए तो यह साजिश ही कही जाएगी ।
           एक जगह लिखा है कि _

    प्रात लेइ जो नाम हमारा।
    तेहि दिन ताहि न मिलय अहारा।।

          अब इसके आधार पर कोई तुलसीदास जी को हनुमान जी के संदर्भ मे दोषी ठहराया जाए तो यह कितनी बड़ी मूर्खता कही जाएगी, ! वास्तव मे यह कथन स्वयं हनुमान जी का है, जो विभीषण से भगवान राम की उदारता बताने के लिए अपने को लघु बता रहे हैं, यह एक सामान्य शिष्टाचार है। आज भी भक्त जन भगवान की आरती मे "_

    मैं, मूरख, खल, कामी।
    मै सेवक तुम स्वामी।।

         जैसे शब्दों का प्रयोग करते हैं, यह अपने इष्ट के प्रति सम्मान का एक सामान्य शिष्टाचार ही है।

           उदाहरण के लिए अगर आज कोई रचनाकार नरेंद्र मोदी जी के बारे में किसी ग्रंथ की रचना करेगा तो उसमे यह जरूर उल्लेख किया जायगा कि नरेंद्र मोदी अपने आप को चौकीदार कहते है, और यह भी उल्लेख किया जायगा कि राहुल गांधी नरेंद्र मोदी को चोर कहते हैं। अब इसके आधार पर रचनाकार को दोष देना व उस पुस्तक को जलाना कहा तक न्याय संगत कहा जाएगा? वास्तविकता यह है कि न तो नरेंद्र मोदी चौकीदार हैं और न ही चोर वे भारत के प्रधानमंत्री हैं, प्रसंग के अनुसार अपनी _अपनी बात कही गई है।
           इसी तरह हर पंक्ति को, हर कथन को संदर्भ के अनुसार समझना चाहिए, मनमाना अर्थ का अनर्थ करना उचित नहीं है।
          ऐसे लोग अपना मानसिक इलाज करवावे तो शायद उनको समझ में आ सके और यदि जान _बूझकर किसी साजिश के तहत ऐसा जघन्य अपराध कर रहे हैं तो इनपर कठोर कार्यवाही की जानी चाहिए।

    डा शिव शरण श्रीवास्तव "अमल "

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