सत्संग से गुण होत हैं कुसंगत से गुण जात

  संगत सज्जनों से ही करनी चाहिए और सज्जन व्यक्ति सत्य के आचरण को धारण करते हैं इसलिये वे सत्संगी कहलाते हैं। सत्य की संगत या तो सत्संग के आयोजन में मिलती है या सज्जन व्यक्तियों की संगति में। कुसंगति व्यक्तियों को पतित बनाती इसलिये मनुष्य को स्वाभाविक रूप से इससे बचने का प्रयास करनी चाहिए। सत्संग को यदि आप संधि - विच्छेद करेंगे तो सत्य जोड़ संग अर्थात् सत्य का साथ और सत्य के साथ वही व्यक्ति दे सकते हैं जिन्हें सत्य और असत्य में अन्तर पता है। ऐसे व्यक्ति ज्ञानी ही होते हैं जिनके पास ग्रंथो की सार तो होती ही है साथ में जीवन की अनुभव भी और ऐसे मनुष्य श्रेष्ठ होते हैं जो आपको आध्यात्मिक और धार्मिक गुरु के रूप में, संत, ऋषि - मुनि के रूप में जीवन में प्राप्त होते हैं जो अपने दिव्य ज्ञान की बदौलत स्वयं आलोकित तो रहते ही हैं साथ में अपने ज्ञान की बदौलत औरों को भी आलोकित करते रहते हैं। लेकिन युग के प्रभाव के कारण या छ्द्म भेष में छिपे कुसंगति के शिकार सत्संगी बनकर आते हैं तो उनकी पहचान आम जनमानस तो नहीं कर सकते लेकिन सत्संग में बैठे ज्ञानियों की नजर से नहीं बच सकते। 
आज धार्मिक प्रवचनों और कथा की एक बाजार बन गई है और कई कथा वाचक विभिन्न चैनलों पर वाचन करते मिल जाएंगे और साथ में उनकी दान सम्बंधित मैसेज भी और इसके लिए कथा वाचक अपने यजमानों के माध्यम से इसकी प्रबंध कराते हैं और उन्हीं में से कई आपको उच्चतम कोटि के वाचक होते हैं और कई भाषा - शैली वाचन के मापदंड पर खड़ी नहीं मिलती। श्रोता अपने ज्ञान के तराजू पर उनसे बहुत कुछ सीखते भी हैं और तौलते भी हैं और ये श्रोताओं पर ही निर्भर है कि वे उनसे क्या ग्रहण करते हैं और क्या नहीं। ज्ञानी और ज्ञान जब बाजार की शरणागत हो जाती है तब वह सत्संग पूरी तरह से सत्संग नहीं रहती अपितु उनका व्यवसायिकरण हो जाता है। और जब व्यवसाय की बात आ जाती है तो श्रोताओं के स्तर के मुताबिक भी बातें परोसी जाती है और कभी - कभी तो पार्टी विशेष की प्रचारतंत्र भी साबित हो जाती है जो कि गलत है। भागवत ज्ञान मनुष्य के कल्याण के लिए ही होती है और उनमें दी ज्ञान से व्यक्ति के जीवन में आमूलचूल परिवर्तन यदि होते हैं और वह सत्य के मार्ग की ओर अग्रसर होता है तो निश्चित रूप से वह सत्संग सफल मानी जाती है लेकिन सत्संग की आड़ लेकर यदि अन्य बातें परोसी जाती है तो निश्चित रूप से सत्संग अपनी प्रासंगिकता को खो देती है। 
सत्संग का प्रभाव ऐसा भी देखने को मिला है कि इसकी संगति करने से सात दिन की आयु एक सौ बीस वर्षों में परिवर्तित हो जाती है। 
सत्संग में संतजन सन्मार्ग अर्थात् सत्य के मार्ग पर चलने के लिए सिखाते हैं और संतों की वाणी हमेशा सन्मार्ग ही दिखलाती है। गोस्वामी तुलसीदास जी सत्संग के बारे में विनय पत्रिका में लिखते हैं, " देहि सत्संग निज अंग श्री रंग, भव भंग कारण शरण शोकाहारी। अर्थात् सत्संग प्रभु श्रीरंग का निज अंग है। भव - भंग का कारण तथा शरण शोकाहारी है। अर्थात् सत्संग जो भगवान का निज अंग है, उसको छोडकर जो रहेगा, अलग होकर रहेगा, उसकी क्या दुर्दशा होगी ठिकाना नहीं, कहने का तात्पर्य यह है कि व्यक्ति को अपनी दशा को ठीक रखने और दुर्दशा से बचने के लिए सत्संग की संगत अवश्य करनी चाहिए और हमेशा कुसंगति से बचने का प्रयास करनी चाहिए। जय सनातन 🙏

अजीत सिन्हा
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