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    मन के हारे हार है मन के जीते जीत !


    मन के हारे हार है, मन के जीते जीत।
    परमात्म को पाइये, मन ही के परतीत॥ 

    मानव अपने मन के विश्वास पर ही परमपुरुष परमात्मा को प्राप्त कर सकता है। यदि 
    मनुष्य का मन हार जाता है अर्थात मन मर जाता है और उसकी हिम्मत टूट जाती है, 
    तो शरीर भी निष्क्रिय हो जाता है। इसके विपरीत जब तक मन नहीं हारता, तब तक 
    शरीर कितना भी अशक्त हो जाए—मनुष्य संघर्ष से मुंह नहीं मोड़ता। इसीलिए यह भी 
    कहा गया है 

    हारिये न हिम्मत बिसारिये न नाम। 
    जाहि विधि राखे राम ताहि विधि रहिये॥

    मनुष्य की मानसिक शक्ति वास्तव में उसकी इच्छा शक्ति है। जिस मनुष्य की इच्छा 
    शक्ति जितनी प्रबल होगी, उसका मन उतना ही सुदृढ़ होगा। अपनी प्रबल इच्छा शक्ति 
    के बल पर मानव मृत्यु के क्षणों को भी टाल सकता है। बाणशैया पर लेटे भीष्म 
    पितामह इसके सशक्त उदाहरण हैं। विघ्न और बाधाएं सभी के मार्ग में आती रहती 
    हैं-चाहे व्यक्ति साधारण हो या महान। साधारण मनुष्य का मन विपत्तियों से 
    घबराता है, जबकि महान एवं प्रतिभाशाली व्यक्ति का मन उस पर विजय के लिए 
    प्रेरित करता है। 
    जिसके मन में संकल्प हो उसे दुनिया की कोई चीज नहीं रोक सकती। एक कहावत कहती 
    है – ‘जाने वाले को किसने रोका है?’ यानी अगर किसी के मन में यात्रा करने की 
    इच्छा हो तो उसे ऐसा करने से कोई नहीं रोक सकता। चुनौतीपूर्ण परिस्थितियों 
    में, एक समर्पित व्यक्ति एक रास्ता खोज लेता है। हम जो कुछ भी करते हैं, पहले 
    मन में उसका ध्यान करते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि कार्य का प्रारूप हमारे मन 
    में तैयार होता है। यदि हमारा मन दृढ़ता से उस पर विचार करता है, तो हमारा 
    चिंतन लाभकारी होता है। व्यवहार में भी दृढ़ता आती है और सफलता भी मिलती है।
    मनुष्य के जीवन में पल-पल परिस्थितीयाँ बदलती रहती है। जीवन में सफलता-असफलता, 
    हानि-लाभ, जय-पराजय के अवसर मौसम के समान है, कभी कुछ स्थिर नहीं रहता। कुछ 
    लोग एक दो बार की असफलता से परेशान हो जाते हैं और कहने लगते हैं कि हम तो ये 
    नही कर सकते या ये मुझसे ये नही हो सकता। लेकिन सोचिये यदि आप बीच में रुक गए 
    तो हमेशा मन में अफसोस रहेगा कि काश हमने कोशिश की होती तो सायद मै सफल हो गया 
    होता । याद रखिये अधूरे छूटे कार्य हमें हमेशा कमजोर होने का एहसास दिलाते 
    रहते हैं।
    मन ही मन को शत्रु है, मन ही मन का मीत” ।
    यदि मन बंधनों में जकड़ा हुआ है, तो वह लौकिक बन्ध्रनों का कारण है और यदि वह 
    डरपोकपन रूपी दोष से रहित है, तो मनुष्य को मुक्ति प्रदान करने में सहायक है। 
    यदि मन खुश है तो सर्वत्र खुशी छायी रहेगी; नहीं तो इसके विपरीत दु:ख ही 
    रहेगा। मन ही लक्ष्य प्राप्ति का साधक है।
    मन परम शक्तिसम्पन्न है। यह अनन्त शक्ति का स्रोत है। मन की इसी शक्ति को 
    पहचानकर ऋग्वेद में यह संकल्प अनेक बार दुहराया गया है–”अहमिन्द्रो न 
    पराजिग्ये” अर्थात मैं शक्ति का केन्द्र हैं और जीवनपर्यन्त मेरी पराजय नहीं 
    हो सकती है। यदि मन की इस अपरिमित शक्ति को भूलकर हमने उसे दुर्बल बना लिया तो 
    सबकुछ होते हुए भी हम अपने को असन्तुष्ट और पराजित ही अनुभव करेंगे और यदि मन 
    को शक्तिसम्पन्न बनाकर रखेंगे तो जीवन में पराजय और असफलता का अनुभव कभी न होगा
                                          - Amrita pal

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