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    *गजल*

    *गजल*
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    इस बुराई का कब होगा खात्मा 
    आत्मा की कौन सुनता है यहां।

    खुद से खुद ही हो रहा इंशा जुदा
    है हवा जहरीली दम घुटता यहां।

    खून के रिश्ते भी अब रिसने लगे हैं
    आदमी गिरगिट सा रंग बदले यहां।

    जिस्म नंगा है हैं भूखे भेड़िए सब
    मांस सब ही नोंचना चाहते यहां।

    फूल गुलदस्तों में कागद के खिले हैं
    खुशबुएं अब कैसे बिखरेंगी यहां।,,,, -गोपी साजन

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