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    पत्थर

                    ।। पत्थर।।
             
           
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    पत्थर क्या है?
    वही न…..जो स्थिर है,अविचल,
    न कोई विकार।
    चेतना शून्य —-जीवन अकल्पित,अस्तित्व का पता नहीं,
    वही तो है पत्थर।
    सब यही जानते हैं और सभी मानते हैं।
    अचेतन, स्थिर…….निश्प्राण ।

    मगर……..
    मैंने पत्थर को कुछ और रूप में देखा है।
    मेरी नज़र कुछ और देख रही है -
    क्या…….?
    पत्थर प्राणवान, तेजस, अलौकिक है।

    वह कैसे….?

    प्रामाणिक है - सत्य शाश्वत है……
     
    बिन हथियार भारत माँ की,
    हिमालय बन रक्षा करता है….।

    जल-वायु, धूप-छाँव के क्षरण से,
    बनी मिट्टी-फसल लोगों की भूख मिटाती है…..।

    पत्थर की दरारों से निकलती जलधार,
    दुनिया की प्यास बुझाती है……।

    पत्थर के रगड़ से निकली चिंगारी,
    इंसा को आग दिखाता है………।

    मैंने पत्थर को सजीव, प्रणवान,ओजस्वी माना है।
    पत्थर से मेरा नाता है।

    वह निर्जीव होकर भी सजीव से कहीं अधिक,
    उत्तरदायित्व को निभाया है।

    जिसने पत्थर को नहीं माना,
    वह नहीं है इंसान-पत्थर है।

    जन्म लिया है जिस दिन मैंने,
    मेरा भार सहा है पत्थर ने।

    जब मैंने चलना सीखा तब,
    चलना सिखाया पत्थर ने।

    जब मैं उड़ना चाहा गगन में तब,
    पत्थर की चोटी-पर्वत ही आसमां दिखाया है।

    जब - जब मैं गिर-गिर पड़ा तब,
    गोद में पत्थर ने थामा है।

    पुल बनाया जब तुमने,
    पत्थर को ही दृढ़ आधार बनाया।

    घर के नींव में तुमने मुझे,
    आधार स्तम्भ मान पूजन किया।

    सबसे पहले औजार बनाया जब तुमने,
    फौलाद बन -रक्षा की है मैंने।

    नदिया की बहती जलधारा,
    पत्थर से ही होकर निकलती है।

    पत्थर से निकलते जल ही तुम्हारे,
    तन मन हृदय की प्यास बुझाती है।

    पत्थर का नींव सदा सच है,
    पत्थर ही धूप-ठंड-बारिश से बचाता है।

    रैन बसेरा और सुख की छाया,
    हरदम साथ दिया तुमको है।

    इसलिए मैं पत्थर को
    -जानता हूँ।
    -पहचानता हूँ।
    -की पूजा करता हूँ।

    जन्म से लेकर मृत्यु तक,
    पत्थर से मेरा नाता है।
    पत्थर मातृभूमि रूप में,
    मेरी जननी माता है।
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    सविनय 🙏
                  स्वरचित मौलिक रचना
                  सतीश देवांगन
                 देवकर (छत्तीसगढ़)
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