सावन गीत
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दुल्हन सी बनी है वसुंधरा
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उमड़-उमड़़ के घुमड़-घुमड़़ के,
नभ में घिर आए बदरा।
रिमझिम-रिमझिम रस से भरी फुहार,
बरसने लगी मोरे अंगना।।
गरमी के ताप से व्याकुल बावरी धरा थी,
वर्षा से हुई नवयौवना।
बगिया हरित हुई और सब कलियां खिली,
कुहुकने लगी अब कोकिला।।
वन बीच मोर नाचें तन बीच मन नाचें,
खेत बीच नाचें सब कृषका।
हाथ में बांसुरी लिए होंठ पर रख कर,
गौ, वत्स संग नाचें कृष्णा।।
गोकुल के गोपी सब मिल आए यमुना तट,
रास रचाएं राधा-कृष्णा।
बावरी बावरी होकर ललिता और गोपी सब,
घेरी कर नचावें राधा-कृष्णा।।
मैं बावरी हुई वारी होऊं नटनागर पर,
"दुर्लभ" रास राधा-कृष्णा।।
सावन का महिना होता है बड़ा मनभावन ,
बगिया में डाली लो हिंडोला।
हिंडोले पर बैठ झुला झुले कान्हा पिय संग,
दुल्हन सी बनी है वसुंधरा।।
मुकेश कुमार दुबे "दुर्लभ"
( शिक्षक सह साहित्यकार)
सिवान, बिहार