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    पिता

                    पिता
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    समाज, परिवार और हमारी, अमिट सभ्यता और संस्कृति,
    वंश परंपरा और सृष्टि का,
    एक मजबूत आधार है पिता।
    माता यदि सृष्टि को जन्म देती है,
    उत्तरदाई है वंश परंपरा को बढ़ाने के लिए,
    तो पिता के बिना नहीं हो सकता है,
    कभी पूर्ण यह महत्वपूर्ण कार्य।
    वास्तव में पिता है जनक सृष्टि का,
    माता है जननी,
    जननी, जनक जननी के मिलने से ही,
    रची जाती है सृष्टि।
    परंतु, माता को मिला,
     एक अति महत्वपूर्ण
    सम्मानजनक स्थान।
    वेद, पुराण, श्रुति, स्मृति, ब्राम्हण,
    आदि सभी ग्रंथों में,
    पिता के महत्ता को आंका गया कुछ कम।
    प्रकृति और पुरुष जीवनगाड़ी के है दो पहिए,
    एक के बिना दूसरा है अपूर्ण।
    जन्मदात्री माता जन्म देकर लाती है,
    एक शिशु को धरा पर पिता के ही सहयोग से,
    हलराती, दुलराती, सहलाती हुई,
    करती है पालन-पोषण निडर होकर।
    आस्वस्त रहती है वह कि है सुरक्षित,
    सामाजिक, आर्थिक और प्राकृतिक आपदाओं से,
    चोर, डाकू, लुटेरों और हत्यारों से,
    सुरक्षा कवच प्रदान करता है पुरुषों उसे।
    असंख्य कठिनाइयां सहकर पालती है मां,
    अपने संतान, अपने जिगर के टुकड़े को,
    पर पिता, एक निरीह प्राणी है,
    जो दूर से ही देख कर संतोष कर लेता है,
    अपने वंशवेल को, अपने रक्त- पोषित शिशु को।
    शीत, ताप, वर्षा जैसे प्राकृतिक आपदाओं को सहकर,
    लुटेरे, हत्यारों जैसे मानवीय विपत्तियों का,
    सामना करते हुए वह,
    विपन्नता, निर्धनता, आधि-व्याधि का दंश,
    झेलते हुए वह जुटाता है,
    वह सारी सुविधाएं, समिधाएं,
    जिसे प्राप्त कर जननी कर सके,
    शिशु का पालन- पोषण।
    अपने शिशु के कष्ट से आहत माता,
    रोकर, बिलख कर अपना दुखड़ा,
    सुना देती है हर किसी को,
    पाती है सहानुभूति जग से वह।
    परंतु पिता, हाय! नहीं कह पाता है,
    अपनी दुर्दशा, अपनी व्यथा किसी से,
    नहीं गिरा पाता है किसी के समक्ष अपने अश्रु जल को,
    अपनी अंतरात्मा में भीतर ही भीतर,
    रो-रोकर कुंठित, व्यथित, दुखी पिता,
    संसार के समक्ष नहीं प्रस्तुत कर सकता है,
    अपने संघर्षों और दुर्दिनों की व्यथा कहानी।
    पिता तो आखिर पिता होता है,
    वह पुरुष है, पुरुष का क्या रोना,
    पत्थर दिल होने के लिए कुख्यात है पिता।
    फूल और नवनीत से भी कोमल,
    हृदय रखता है अपने वक्ष के भीतर।
    जब आती है कोई आंच उसके संतान पर,
    तब शत्रुओं और परिस्थितियों से,
    दो-चार होने के साथ-साथ,
    अपने अपनों से और अपने आप से,
    भीतर ही भीतर करता रहता है वह एक संघर्ष।
    जब विदा होती है बिटिया ससुराल को,
    तब माता रो- रो कर अपने प्रेम,
    और विछोह दुख प्रकट कर देती है,
    पर हाय! पिता उस समय भी,
    नहीं बता पाता है जग को,
    उसके भीतर भी है दिल।
    उसके नेत्रों में भी है अश्रु,
    अपनी संतानों के लिए वह भी है दुखी।
    मूर्तिवत, पाषाण- हृदय बना,
    अपने भीतर ही जमा लेता है पत्थर सा,
    अपने रक्त अश्रुओं को।
    पिता तो आखिर पिता होता है,
    पीटता है वह हर परिस्थितियों से,
    संघर्ष करते हुए न्योछावर करता रहता है,
    वह अपनी बहुमूल्य जिंदगी,
    अपने परिवार और संतान के लिए।
    पिता सा नहीं है कोई जग में,
    समर्पित व्यक्तित्व,
    वह सबके हिस्से का कष्ट सहकर,
    सबसे दो-चार सुनकर,
    निर्दोष होते हुए भी,
    स्वयं को दोषी मानकर,
    आजीवन अपने परिवार और संतान पर,
    बलिदान होता रहता है पिता।
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    मुकेश कुमार दुबे "दुर्लभ"
    ( शिक्षक सह साहित्यकार)
    सिवान, बिहार

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