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    निर्झर की अभिलाषा

    सदा पाऊं नए आयाम, ये है निर्झर की अभिलाषा।
    तीनों लोक लें मेरा नाम, है बस यही उसकी आशा।

    सारे कंकड़-पत्थर भी, इसके साथ बहकर आते हैं।
    पौधों के अंग सभी, इसकी छांव में रहकर आते हैं।
    ऐसे ही हम भी जीवन में, पीर को सहकर आते हैं।
    दुःख में भी हम खुश हैं, सबसे ये कहकर आते हैं। 

    स्वयं को संभाल लेते हैं, जब भी घेरे घोर निराशा।
    सदा पाऊं नए आयाम, यह निर्झर की अभिलाषा।

    हो शीत, वर्षा, बसन्त हो, हो ग्रीष्म या हो आषाढ़।
    गर्मी से सूखा पड़े या फिर अतिवृष्टि ले आए बाढ़।
    हर ऋतु में ही मिला मुझे, अपने घर में पूरा लाड़।
    केवल सौम्यता ही भाए मुझे, मैं न जानूं ये प्रताड़।

    दोनों में अंतर ढूंढने की, मेरे मन में उठी जिज्ञासा।
    सदा पाऊं नए आयाम, यह निर्झर की अभिलाषा।

    कोई फेंके दूषित सामान, इसमें दे विष को स्थान।
    बाद में जो प्रदूषण सताए, तो सबको बांटते ज्ञान।
    मुझे रोक-टोक का जीवन, बहुत बेकार लगता है।
    नज़रें शूल-सी चुभती हैं, कथन तलवार लगता है। 

    क्यों हश्र देखकर भी, न शांत हो जग की पिपासा।
    सदा पाऊं नए आयाम, यह निर्झर की अभिलाषा।

    यात्रा अंतिम पद में पहुंचते ही, पूरी धरती ये बोले।
    स्थिरता में विचलन देख, निर्झर का भी दिल डोले।
    मैं भी डरता हूं जीवन से कि क्या इसका इरादा है?
    इसमें क्या मेरी प्रतिज्ञा है? इससे क्या मेरा वादा है?

    अंतिम छोर पे पहुंचते ही, निर्झर भी डरे ज़रा-सा।
    सदा पाऊं नए आयाम, यह निर्झर की अभिलाषा।

    Er. Himanshu Badoni "Dayanidhi"

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