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    साहित्य समाज के मूल्यों का निर्धारक


    किसी का सत्य था,
    मैंने संदर्भ में जोड़ दिया।
    कोई मधुकोष काट लाया था,
    मैंने निचोड़ लिया।
    यो मैं कवि हूँ, आधुनिक हूँ, नया हूँ
    काव्य-तत्त्व की खोज में कहाँ नहीं गया हूँ?
    चाहता हूँ आप मुझे
    एक-एक शब्द पर सराहते हुए पढ़ें।

    पर प्रतिमा- अरे, वह तो
    जैसी आप को रुचे आप स्वयं गढ़े।

    उपर्युक्त पंक्तियाँ सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय की नया कवि, 
    आत्म-स्वीकार से उद्धृत हैं। अज्ञेय ने रचना सृजन के दौरान की मनोस्थिति को 
    बहुत ही सुंदर तरीके से यहाँ अभिव्यक्त किया है। साहित्य का आविर्भाव भी इसी 
    समाज से होता है जिसे रचनाकार अपने भावों के साथ मिलाकर उसे एक आकार देता है। 
    यही रचना समाज के नवनिर्माण में पथप्रदर्शक की भूमिका निभाने लगती है। अज्ञेय 
    मानते हैं कि साहित्यकार होने के नाते अपने समाज के साथ उनका एक विशेष प्रकार 
    का संबंध है- समाज से उनका आशय चाहे हिंदी भाषी समाज रहा हो जो कि उनका पहला 
    पाठक होगा, चाहे भारतीय समाज जिसके काफी समय से संचित अनुभव को वे वाणी दे रहे 
    होंगे, चाहे मानव समाज हो जो कि शब्द मात्र में अभिव्यक्त होने वाले मूल्यों 
    की अंतिम कसौटी ही नहीं बल्कि उनका स्रोत भी है ।

    हम पाते हैं कि साहित्य वह सशक्त माध्यम है, जो समाज को व्यापक रूप से 
    प्रभावित करता है। यह समाज में प्रबोधन की प्रक्रिया का सूत्रपात करता है। 
    लोगों को प्रेरित करने का कार्य करता है और जहाँ एक ओर यह सत्य के सुखद 
    परिणामों को रेखांकित करता है, वहीं असत्य का दुखद अंत कर सीख व शिक्षा प्रदान 
    करता है। अच्छा साहित्य व्यक्ति और उसके चरित्र निर्माण में भी सहायक होता है। 
    यही कारण है कि समाज के नवनिर्माण में साहित्य की केंद्रीय भूमिका होती है। 
    इससे समाज को दिशा-बोध होता है और साथ ही उसका नवनिर्माण भी होता है। साहित्य 
    समाज को संस्कारित करने के साथ-साथ जीवन मूल्यों की भी शिक्षा देता है एवं 
    कालखंड की विसंगतियों, विद्रूपताओं एवं विरोधाभासों को रेखांकित कर समाज को 
    संदेश प्रेषित करता है, जिससे समाज में सुधार आता है और सामाजिक विकास को गति 
    मिलती है।

    साहित्य में मूलत: तीन विशेषताएँ होती हैं जो इसके महत्त्व को रेखांकित करती 
    हैं। उदाहरणस्वरूप साहित्य अतीत से प्रेरणा लेता है, वर्तमान को चित्रित करने 
    का कार्य करता है और भविष्य का मार्गदर्शन करता है। साहित्य को समाज का दर्पण 
    भी माना जाता है। हालाँकि जहाँ दर्पण मानवीय बाह्य विकृतियों और विशेषताओं का 
    दर्शन कराता है वहीं साहित्य मानव की आंतरिक विकृतियों और खूबियों को चिह्नित 
    करता है। सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि साहित्यकार समाज में व्याप्त 
    विकृतियों के निवारण हेतु अपेक्षित परिवर्तनों को भी साहित्य में स्थान देता 
    है। साहित्यकार से जिन वृहत्तर अथवा गंभीर उत्तरदायित्वों की अपेक्षा रहती है 
    उनका संबंध केवल व्यवस्था के स्थायित्व और व्यवस्था परिवर्तन के नियोजन से ही 
    नहीं है, बल्कि उन आधारभूत मूल्यों से है जिनसे इनका निर्णय होता है कि वे 
    वांछित दिशाएँ कौन-सी है, और जहाँ इच्छित परिणामों और हितों की टकराहट दिखाई 
    पड़ती है, वहाँ पर मूल्यों का पदानुक्रम कैसे निर्धारित होता है?

    समाज के नवनिर्माण में साहित्य की भूमिका के परीक्षण से पूर्व यह जानना आवश्यक 
    है कि साहित्य का स्वरूप क्या है और उसके समाज दर्शन का लक्ष्य क्या है? हितेन 
    सह इति सष्टिमूह तस्याभाव: साहित्यम्। यह वाक्य संस्कृत का एक प्रसिद्ध 
    सूत्र-वाक्य है जिसका अर्थ होता है साहित्य का मूल तत्त्व सबका हितसाधन है। 
    मानव अपने मन में उठने वाले भावों को जब लेखनीबद्ध कर भाषा के माध्यम से प्रकट 
    करने लगता है तो वह रचनात्मकता ज्ञानवर्धक अभिव्यक्ति के रूप में साहित्य 
    कहलाता है। साहित्य का समाजदर्शन शूल-कंटों जैसी परंपराओं और व्यवस्था के शोषण 
    रूप का समर्थन करने वाले धार्मिक नैतिक मूल्यों के बहिष्कार से भरा पड़ा है। 
    जीवन और साहित्य की प्रेरणाएँ समान होती हैं। समाज और साहित्य में 
    अन्योन्याश्रित संबंध होता है। साहित्य की पारदर्शिता समाज के नवनिर्माण में 
    सहायक होती है जो खामियों को उजागर करने के साथ उनका समाधान भी प्रस्तुत करती 
    है। समाज के यथार्थवादी चित्रण, समाज सुधार का चित्रण और समाज के प्रसंगों की 
    जीवंत अभिव्यक्ति द्वारा साहित्य समाज के नवनिर्माण का कार्य करता है।

    साहित्य समाज की उन्नति और विकास की आधारशिला रखता है। इस संदर्भ में अमीर 
    खुसरो से लेकर तुलसी, कबीर, जायसी, रहीम, प्रेमचंद, भारतेन्दु, निराला, 
    नागार्जुन तक की श्रृंखला के रचनाकारों ने समाज के नवनिर्माण में अभूतपूर्व 
    योगदान दिया है। व्यक्तिगत हानि उठाकर भी उन्होंने शासकीय मान्यताओं के खिलाफ 
    जाकर समाज के निर्माण हेतु कदम उठाए। कभी-कभी लेखक समाज के शोषित वर्ग के इतना 
    करीब होता है कि उसके कष्टों को वह स्वयं भी अनुभव करने लगता है। तुलसी, कबीर, 
    रैदास आदि ने अपने व्यक्तिगत अनुभवों का समाजीकरण किया था जिसने आगे चलकर 
    अविकसित वर्ग के प्रतिनिधि के रूप में समाज में स्थान पाया। मुंशी प्रेमचंद के 
    एक कथन को यहाँ उद्धृत करना उचित होगा, ‘‘जो दलित है, पीड़ित है, संत्रस्त है, 
    उसकी साहित्य के माध्यम से हिमायत करना साहित्यकार का नैतिक दायित्व है।’’

    प्रेमचंद का किसान-मज़दूर चित्रण उस पीड़ा व संवेदना का प्रतिनिधित्व करता है 
    जिनसे होकर आज भी अविकसित एवं शोषित वर्ग गुज़र रहा है। साहित्य में समाज की 
    विविधता, जीवन-दृष्टि और लोककलाओं का संरक्षण होता है। साहित्य समाज को स्वस्थ 
    कलात्मक ज्ञानवर्धक मनोरंजन प्रदान करता है जिससे सामाजिक संस्कारों का 
    परिष्कार होता है। रचनाएँ समाज की धार्मिक भावना, भक्ति, समाजसेवा के माध्यम 
    से मूल्यों के संदर्भ में मनुष्य हित की सर्वोच्चता का अनुसंधान करती हैं। यही 
    दृष्टिकोण साहित्य को मनुष्य जीवन के लिये उपयोगी सिद्ध करते हैं।

    साहित्य की सार्थकता इसी में है कि वह कितनी सूक्ष्मता और मानवीय संवेदना के 
    साथ सामाजिक अवयवों को उद्घाटित करता है। साहित्य संस्कृति का संरक्षक और 
    भविष्य का पथ-प्रदर्शक है। संस्कृति द्वारा संकलित होकर ही साहित्य ‘लोकमंगल’ 
    की भावना से समन्वित होता है। सुमित्रानंदन पंत की पंक्तियाँ इस संदर्भ में 
    कहती है कि-

    वही प्रज्ञा का सत्य स्वरूप
    हृदय में प्रणय अपार
    लोचनों में लावण्य अनूप
    लोक सेवा में शिव अविकार।

    उन्नीसवीं एवं बीसवीं शताब्दी को भारतीय साहित्य के सांस्कृतिक एवं समाज 
    निर्माण की शताब्दी कहा जा सकता है। इस शताब्दी ने स्वतंत्रता के साथ-साथ समाज 
    सुधार को भी संघर्ष का विषय बनाया। इस काल के साहित्य ने समाज जागरण के लिये 
    कभी अपनी पुरातन संस्कृति को निष्ठा के साथ स्मरण किया है, तो कभी तात्कालिक 
    स्थितियों पर गहराई के साथ चिंता भी अभिव्यक्त की।
    आठवें दशक के बाद से आज तक के काल का साहित्य जिसे वर्तमान साहित्य कहना अधिक 
    उचित होगा, फिर से अपनी सांस्कृतिक जड़ों से जुड़कर समाज निर्माण की भूमिका को 
    वरीयता के साथ पूरा करने में जुटा है। वर्तमान

    साहित्य मानव को श्रेष्ठ बनाने का संकल्प लेकर चला है। व्यापक मानवीय एवं 
    राष्ट्रीय हित इसमें निहित हैं। हाल के दिनों में संचार साधनों के प्रसार और 
    सोशल मीडिया के माध्यम से साहित्यिक अभिवृत्तियाँ समाज के नवनिर्माण में अपना 
    योगदान अधिक सशक्तता से दे रही हैं। हालाँकि बाजारवादी प्रवृत्तियों के कारण 
    साहित्यिक मूल्यों में गिरावट आई है परंतु अभी भी स्थिति नियंत्रण में है।

    आज आवश्यकता है कि सभी वर्ग यह समझें कि साहित्य समाज के मूल्यों का निर्धारक 
    है और उसके मूल तत्त्वों को संरक्षित करना जरूरी है क्योंकि साहित्य जीवन के 
    सत्य को प्रकट करने वाले विचारों और भावों की सुंदर अभिव्यक्ति है।

    आशीष मिश्रा

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