कोई परिणाम नहीं मिला

    प्रेम : जीवन का आधार

     प्रेम : जीवन का आधार

    सभी जीवों में एक भाव सामान्य है, वो है प्रेम। इस मार्ग द्वारा स्त्री-पुरुष परस्पर तथा दोनों प्रकृति को और प्रकृति विश्व को प्राप्त कर सकते हैं। और जो प्रेम सब सीमाओं को तोड़ कर बाहर बह निकलता है वो है - विश्व-मातृत्व ।

            इस धरा पर यदि कोई उत्तम पुष्प खिल सकता है तो वो है प्रेम का पुष्प। एक खूबसूरत, सुगन्धित फ़ूल किसी छोटे से पौधे पर भी खिल सकता है। उसी प्रकार, प्रेम मानव-हृदय में प्रस्फुटित होता और फलता-फूलता है। स्त्री-पुरुष दोनों को इसे भीतर से विकसित होने देना चाहिए। दो प्रेमी हृदयों के सौन्दर्य व शक्ति से बढ़ कर कुछ गूढ़ नहीं है। प्रेम में पूर्णिमा के चन्द्रमा जैसी शीतलता तथा सूर्य की किरणों जैसी चमचमाती दीप्ति है। परन्तु अनुमति बिना प्रेम हमारे हृदय में प्रविष्ट नहीं हो सकता। स्त्रियों व पुरुषों को अपने भीतर इसी प्रतीक्षारत प्रेम का आह्वान करने को समान रूप से तत्पर होना चाहिए। केवल और केवल प्रेम ही मानसिकता में स्थाई परिवर्तन ला सकता है। यदि पति-पत्नी परस्पर सूझ-बूझ के साथ रहते हैं तो उनके बीच अलगाव की स्थिति कम होती जाएगी। किसी सीमा तक, इससे सामाजिक समस्याएँ भी कम होंगी। आजकल दूसरों को दिखाने के लिए, कोई दम्पति यह दावा कर सकता है कि, "हम परस्पर प्रेम व विश्वास के साथ रहते हैं।" यह सिर्फ दावा ही है। प्रेम कोई कल्पना अथवा दिखावे की वस्तु तो है नहीं, यह तो जीने की राह अथवा यूँ कहें कि स्वयं जीवन ही है।

            दिखावा करना अर्थात् मुखौटा पहनना, इसे हटाना ही होगा। अन्यथा समय इसे उतार फेंकेगा। अंतर है तो मात्र इतना कि अपनी-अपनी भूमिका की अवधि के आधार पर किसी का मुखौटा पहले उतारा जायेगा, किसी का बाद में।

            मनुष्य की सहज प्रकृति, प्रेम, मुखौटा कैसे बन गई? समझौते तथा विनम्रता को छोड़ कर, जब कोई स्वयं को गर्त में गिरा देता है तो प्रेम एक दिखावा बन कर रह जाता है। उदाहरण के लिए, यदि हम नदी-किनारे खड़े रह कर केवल देखते रहें तो क्या हमारी प्यास बुझेगी? प्यास बुझाने के लिए तो हमें झुक कर पानी पीना होगा। परन्तु यदि हम सीधे तन कर खड़े रहेंगे और नदी को भला-बुरा कहेंगे तो उससे क्या लाभ होगा? इसी प्रकार, यदि हमें स्वयं को प्रेम के निर्मल जल से भरना है तो समर्पण करें।

            आज के स्त्री-पुरुष किसी गुप्त-पुलिस विभाग के समान हैं। वे जो कुछ देखते-सुनते हैं, उसे सन्देह की दृष्टि से देखते हैं। ऐसे सन्देही स्वभाव के कारण उनकी आयुष्य तथा स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव होता है। यह स्वयं में एक गम्भीर रोग है। जिसे लग गया वो दूसरों की समस्या को समानुभूति सहित सुनने की क्षमता खो बैठता है।

            यद्यपि अनेकों सम्बन्ध खतरे में हैं फिर भी प्रेम पूर्ण रूप से समाप्त नहीं हो गया। यदि प्रेम मर गया तो विश्व समाप्त हो जायेगा। प्रेम की कभी न बुझने वाली चिंगारी, हम सबके भीतर उपस्थित है। हमें केवल इसे थोड़ी सी हवा देनी है और फिर देखियेगा - कैसे यह लपटों में बदल जाएगी।

         पशु-प्रजातियों को लुप्तप्राय होता देख रहे हैं। क्या हम प्रेम को भी इसी भाँति लुप्त होने देंगे? नहीं, इसे लुप्त होने से रोकने के लिए हमें फिर से ईश्वर(किसी भी रूप में) में श्रद्धा कर, उसकी पूजा-उपासना की ओर लौटना होगा।
     तुम कहो तो बताकर के दिखलाऊँ मैं।
    सुबह है प्रेम में, प्रेम में शाम है,
    प्रेम दिन भर के पल पल में दर्शाऊं मैं।।

    प्रेम बिन ये उमर, जैसे तपती डगर।
    प्रेम बिन ये नयन, जैसे निर्जन हो वन।
    प्रेम जीवन में ऐसे समाया हुआ,
    जैसे भूखा हो भरपेट खाया हुआ।।
    प्रेम लघु में बसा, प्रेम विस्तार में,
    प्रेम के बिन कोई कण कहाँ पाऊँ मैं।
    सुबह है प्रेम में, प्रेम में शाम है,
    प्रेम दिन भर के पल पल में दर्शाऊं मैं।।

    जैसे साबुन ज़रूरी नहाने को है,
    जैसे सूरज ये कपड़े सुखाने को है।
    जैसे गर्मी में ए.सी. मजा देता है,
    कोई वाहन हो, दूरी घटा देता है।।
    प्रेम बिन ये जीवन, गाड़ी ईंधन के बिन,
    ऐसी गाड़ी से बोलो कहाँ जाऊँ मैं।
    सुबह है प्रेम में, प्रेम में शाम है,
    प्रेम दिन भर के पल पल में दर्शाऊं मैं।।

    चाय में जैसे चीनी पड़ी हो प्रचुर,
    शहद के संग शर्बत हो जाता मधुर।
    प्रेम ना हो तो मचती बड़ी खलबली,
    जैसे बिस्तर मिला हो बिना मलमली।।
    बहुत समझाया अब तक विचारों से, अब,
    तुम कहो तो ये कंगन को खनकाऊँ मैं।।
    सुबह है प्रेम में, प्रेम में शाम है,
    प्रेम दिन भर के पल पल में दर्शाऊँ मैं।।
     वो ईश्वर बाहर कहीं नहीं, अपितु भीतर है-करना है तो केवल इतना कि अपनी दृष्टि को सुधार लें। जैसे पुस्तक पढ़ते समय हम अपनी दृष्टि को शब्दों पर जमाते हैं न कि उस कागज़ पर जिस पर वे शब्द छपे हैं। कागज़ तो वह अधिष्ठान है जिस पर वे शब्द स्पष्ट किये गए हैं।

            कुछ लोगों के साथ यह प्रयोग कर के देखिये। एक बड़े से बोर्ड को सफ़ेद कागज़ से ढक दीजिये। इस सफ़ेद कागज़ के बीचोंबीच एक छोटा सा काला धब्बा लगा दें। फिर उनसे पूछिए, "आपको क्या दिखाई दे रहा है? "अधिकांश लोगों का उत्तर होगा, "मुझे एक छोटा सा काला धब्बा दिखाई दे रहा है। "बहुत कम लोग कहेंगे कि, "मुझे एक बड़े से सफ़ेद कागज़ के बीचोबीच एक काला धब्बा दिखाई दे रहा है।"

            आज मानवता की ऐसी दशा हो गई है! स्त्री-पुरुष में जीवन के आधार-मात्र, प्रेम, के मूल्य को आंकने की क्षमता नहीं रही। जब हम पढ़ें तो ज़रूरी है कि अक्षरों को देख पायें। परन्तु पढ़ते समय यह ज्ञान भी बना रहे कि कागज़ अधिष्ठान है।

            इसी प्रकार, मेरे दोस्तों यह समझें कि प्रेम जीवन का आधार है।

    6 टिप्पणियाँ

    Thank You for giving your important feedback & precious time! 😊

    और नया पुराने

    संपर्क फ़ॉर्म