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    मै अकेला

    उस दोहरे पथ पर मै अकेला
    जा रहा हूं साहस तोड़,
    प्रश्नचिन्ह लग गया है मुझपर
    टूट गई जीवन की डोर।

    यह राम क्या? रहीम क्या?
    शीत की समीर क्या?
    गीता है तो कुरान क्या?
    यह पंथों का जहान क्या?
    न आ रहा समझ मुझे,
    छाई रजनी काली घोर।

    उस दोहरे पथ पर मै अकेला,
    जा रहा हूं साहस तोड़,
    प्रश्नचिन्ह लग गया है मुझपर,
    टूट गई जीवन की डोर।

    भाई-भाई में रहा ना प्यार,
    खुल गए बुराई के द्वार,
    बचकर रहना माया से,
    अपनों की काया से,
    दुनिया हुई विश्वासघाती,
    हुआ किंकर्तव्यविमूड़ घोर।

    उस दोहरे पथ पर मै अकेला,
    जा रहा हूं साहस तोड़,
    प्रश्नचिन्ह लग गया है मुझपर,
    टूट गई जीवन की डोर।

    स्वर्णिम प्रतिमा भारत मां की,
    हो गई दाग-धब्बों वाली,
    अपशब्द प्रचलित हो गए,
    बन गए यही कवाली,
    बाह्य अंग है सुशोभित,
    मन में बैठा काला चोर।

    उस दोहरे पथ पर मै अकेला,
    जा रहा हूं साहस तोड़,
    प्रश्नचिन्ह लग गया है मुझपर,
    टूट गई जीवन की डोर।

    यह कविता मेरे अंतर्मन में उठे सवालों का एक शाब्दिक प्रारूप है। हमारे समाज में चल रही कुरीतियों, बुराइयों, और मन में बढ़ रहे पाप के ऊपर सवाल उठाती हुई यह रचना आप सभी को अवश्य ही पसंद आएगी।

    Anurag

    1 टिप्पणियाँ

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