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    देवों की वाणी में जब मानव का दिमाग लग जाता है तो भ्रांतियां फैलती ही है ।

     सनातन धर्म के मुख्य आधार वेद, पुराण, श्रुति, उपनिषद् इत्यादि ही हैं जिससे सनातन धर्म अपने आप में पूर्ण है और इसके लिये लोंगो के मत की आवश्यकता नहीं है जो आगे जाकर पंथ में परिणत हुये और यही बाद में जाकर अन्य धर्मों का स्वरुप ग्रहण किये कहने का तात्पर्य यह है कि मतों और पंथों ने मेरी दृष्टि में सनातन धर्म को कमजोर करने का काम किये और सभी ने अपनी - अपनी धर्म आधारित दुकानदारी को चलाने के लिए नये - नये धर्मों का जन्म दिये चाहे वह बौद्ध धर्म हो या जैन धर्म या या ईसाई धर्म या कोई अन्य धर्म।
    सनातन धर्म में निराकार और साकार रूप में मानने वाले धर्मावलंबी है और निराकार वाले अपरम्पार ऊर्जा के परम स्त्रोत निराकार ब्रह्म ओम को ही अपना परम ब्रह्म मानते हैं जबकि साकार वाले के उद्गम नारायण कहलाते हैं। नारायण के नाभि से ब्रह्मा की उत्पत्ति हुई है और ब्रह्मा के रौद्र से शिव (शंकर) की उत्पत्ति हुई है जिन्हें संहार करने की शक्ति मिली हुई है और ब्रह्मा जी के पास सृजन करने की शक्ति और नारायण के पास पालन - पोषण करने की शक्ति है। इन त्रिदेवों ने अपनी - अपनी भार को कम करने के लिए और दुनिया के कार्य को चलाने के लिए अपने त्रिगुणों से युक्त श्री चित्रगुप्त के प्रकटीकरण की पटकथा को लिखी है और श्री चित्रगुप्त को अपनी सभी शक्तियों से युक्त कर लोंगो के भाग्य को लिखने की शक्ति प्रदान की है कहने का तात्पर्य यह है कि लोगों को उनके किये गये कर्मों के फल के अनुसार उन्हें सद्गति, दुर्गति, स्वर्ग, नर्क, मुक्ति, भक्ति, रोग, दुःख, दर्द, कैंसर रोग इत्यादि सभी श्री चित्रगुप्त प्रदान करते हैं। 
    देवों में ब्रह्मा, विष्णु, महेश, श्री चित्रगुप्त के परिवार ही सनातन धर्म के साकार रूप में आधार हैं जिसमें शिव-पार्वती के पुत्र श्री गणेश की पूजन सभी देवों के पूजन से पहले करने की प्रचलन या प्रथा बनाई गई है। 
    इसके अलावा शक्ति स्वरुपा माता लक्ष्मी, माता सरस्वती, माता पार्वती और उनके नौ रूपों की पूजन सनातन धर्म संबंधित धर्म ग्रंथों में उल्लिखित है। 
    मानव सहित सभी जीव-जंतु, प्रकृति, ब्रह्मांड, राक्षस, गंधर्व इत्यादि की रचना परम पिता परमेश्वर द्वारा एक सांसारिक मायाजाल है जिसमें सभी की कठिन परीक्षा विधाता द्वारा ली जाती है और मानव को न ही स्वयं देवी - देव बनने या घोषित करने का अधिकार है और न ही मानव को देवी - देव स्वरूप मानकर किसी भी दूसरे मानव चाहे वे संत, फकीर, मठाधीश, कथाकार, कथावाचक इत्यादि को पूजने का ही अधिकार है और यदि कोई मानव अपने किये कर्मों की वज़ह से महान होता है तो वह महामानव की श्रेणी में ही आयेगा न कि देवी - देव की श्रेणी में। इसलिये मेरी यह राय है कि किसी भी श्रेणी के महापुरुष अपने आपको पूजित होने से बचें क्योंकि धर्म सिंधु ग्रंथ के अनुसार जब दशरथ नंदन राम और यशोदा नंदन कृष्ण सहित 24 क्या दस अवतारों की पूजन अपने पूजन गृह में करने की मनाही है हालाँकि इसी ग्रंथ में सार्वजानिक मंदिरों में अवतारी महामानव - महापुरुषों को पूजन करने की खुली छूट मिली हुई है। 
                तपस्या स्वरूप मिले ज्ञान की वज़ह से ज्ञानी जन जब अपने स्वयं को पूजित करवाते हैं तो वे निश्चित रूप से श्री चित्रगुप्त के नजरों में दंड के भागीदारों में से एक होते हैं। ज्ञानी को ज्ञान स्वयं को पूजित होने के लिये विधाता द्वारा नहीं दी जाती है अपितु धर्म के प्रकाश से लोंगो को आलोकित और लोंगो के कल्याणार्थ उन्हें सही मार्ग दिखाने के लिए दी जाती है ताकि सांसारिक व्यवस्था सुव्यवस्थित रूप से चले। 
    प्रत्येक सनातनी को यह जनाना जरूरी है कि विधाता उनके क्रियाकलापों को देख रहा है और उसके सत्कर्मों, दुष्कर्मों की गणना हो रही है और प्रत्येक कर्म का फल भी निश्चित जो प्राणियों को पृथ्वी पर तो भोगनी ही पडती है और साथ में बचे फल अगले जन्म या उसके अगले जन्म चाहे उनकी उत्पत्ति आगे जाकर किसी भी योनि या जीव में हुई हो और यह क्रम तब तक चलते रहता है जब तक उन्हें उनके किए गए सत्कर्मों की वज़ह से मुक्ति नहीं मिल जाती है। 
    यहां पर यह भी विदित हो कि श्री चित्रगुप्त के फैसले में श्री हरि नारायण, उनके पिता ब्रह्मा और बड़े भाई शिव (शंकर) की इच्छा निहित होती है क्योंकि श्री चित्रगुप्त त्रिदेवों की केंद्रीय शक्ति हैं लेकिन एक विशेष शक्ति जो श्री चित्रगुप्त को प्राप्त है वह है प्रलय करने की शक्ति, इसलिए वे प्रलयंकर भी कहे जाते हैं और उनके बड़े भाई शिव के पास संहार की शक्ति है और संहार प्रलय की एक भाग होती है। 
    वेद - वेदांतों, पुराणों में देवों - देवियों की शक्ति के बारे में उल्लिखित है। 
    पौराणिक धर्म ग्रंथों के शोधन के कार्य शोधक करते रहते हैं और अपने विवेक से उसका वर्णन भी करते हैं लेकिन जब शोधक सत्य को पकड़ नहीं पाते हैं तो अर्थ का अनर्थ भी लिख देते हैं कहने का तात्पर्य यह है कि वे अपने दिमाग व बुद्धि का गलत इस्तेमाल करते हैं जबकि सत्य केवल सत्य ही होती है जिसे केवल प्रभु कृपा से ज्ञानीजन ही समझ सकते हैं। 
    कहने का तात्पर्य यह है कि जब देवों की वाणी में जब मानव का दिमाग लग जाता है तब भ्रांतियां फैलती ही है और ऐसे लोग सनातन को कमजोर करने का कार्य करते हैं जबकि सनातन अपने आप में सत्य और शाश्वत है और इसमें झूठ की संभावना कहीं भी नहीं है। जय सनातन 🙏 

                                        
                                                     -अजीत सिन्हा

    1 टिप्पणियाँ

    Thank You for giving your important feedback & precious time! 😊

    1. दुनिया की और है:-
      कई 100 वर्षों से सनातन धर्म तपस्वी महामानव का राजतिलक भारत में नहीं हुआ था इसी वजह से भारत नैतिकता के मामले में पीछे के अस्तर में है और आज कई वर्ष तपस्या करने के बाद भारत में तपस्वी महामानव का राजतिलक हुआ है इसी वजह से विश्व गुरु फिर से आने वाले 10 सालों में बन रहा है

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